Muni ajayprkash Ji https://jaivardhannews.com/muni-ajay-prakashs-santhara-was-sealed-in-rajsamand-and-now-the-last-journey-will-come-out/

आचार्य महाश्रमण के शिष्य अजय प्रकाशजी का राजसमंद जिले के धानीन पंचायत में स्थित संबोधि उपवन परिसर में संथारा मंगलवार अल सुबह 4.35 बजे सीज गया। अब उनकी बेकुंठी यात्रा संबोधि उपवन में ही शाम 4 बजे निकाली जाएगी। इसको लेकर जैन समाज के लोगों द्वारा आवश्यक तैयारियां की जा रही है। संबोधि उपवन परिसर में ही उनके पार्थिव देह का अंतिम संस्कार विधि विधान से डोल यात्रा के साथ किया जाएगा। पत्नी व बेटी के साथ मुनि अजय प्रकाश ने सांसारिक जीवन को छोड़कर सन्यास लिया था। इस तरह उनके जीवन की कहानी भी बड़ी ही रोचक है।

जानकारी के अनुसार मुनि अजयप्रकाशजी का जन्म जोधपुर जिले के पीपाड़सिटी में 1960 में हुआ था। मां सज्जनदेवी और पिता माणकचंद काकरिया के घर जन्म अजयप्रकाशजी ने 42 वर्ष की उम्र में गुजरात के सुरत स्थित सिटी लाइट में 167 जुलाई 2003 को उनकी पत्नी व 11 साल की बेटी के साथ दीक्षा ली थी। उन्हें यह दीक्षा आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा दिलाई गई थी। उनका मुंबई में ज्वैलर्स का बड़ा कारोबार था, मगर सारा छोड़कर गृहस्ती जीवन को त्याग दिया। खास बात यह है कि उनके परिवार में 11 साल की बेटी भी वैराग्य आ गया और वह भी साध्वी है। उनकी बेटी और पत्नी भी साध्वी है, जो दूसरी जगह चातुर्मास कर रहे हैं। अब उनके सांसारिक जीवन से कोई नाता नहीं होने की वजह से डोल यात्रा से लेकर अंतेष्टी तक में उनकी पत्नी व बेटी जो अब साध्वी बन चुकी है, वे शामिल नहीं होगी।

देशभर में विचरण कर ज्ञान गंगा बहाई

मुनि अजय प्रकाश ने सन्यास लेने के बाद राजस्थान, गुजरात, दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु क्षेत्र में चातुर्मास किए और लोगों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। हमेशा ज्ञान के प्रति उनकी काफी उत्सुकता रही और वे ज्यादातर एकांतवास में रहते थे।

जीवन के अंत का पहले से ही आभास

समाजसेवी राजकुमार दक ने बताया कि मुनि अजय प्रकाश कुछ समय से संबोधि उपवन में बिराज रहे थे। उन्हें जीवन के अंतिम समय में आने का पहले ही आभास हो गया था। इसी वजह से मुनि श्री द्वारा आचार्य महाश्रमण से संथारा की स्वीकृति मांगी गई। साथ ही अंतिम दिनों में उनकी लंबी तपस्या रही, जो भी अन्य आम लोगों के लिए भी बड़ी प्रेरणास्पद है।

देखिए संथारा है क्या और कैसे लिया जाता है

जैन धर्म में ऐसी मान्यता है कि जब कोई व्यक्ति या जैन मुनि अपनी ज़िंदगी पूरी तरह जी लेता है और शरीर उसका साथ देना छोड़ देता है तो उस वक्त वो संथारा ले सकता है। संथारा को संलेखना भी कहा जाता है। संथारा एक धार्मिक संकल्प है और इस तरह वह व्यक्ति अन्न त्याग करता है और मृत्यु का सामना करता है। जैन धर्म में सबसे पुरानी प्रथा मानी जाती है संथारा प्रथा (संलेखना)। जैन समाज में इस तरह से देह त्यागने को बहुत पवित्र कार्य माना जाता है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा भी कहा जाता है।

इसका अर्थ है- जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है जिसके आधार पर साधक मृत्यु को पास देख सबकुछ त्यागकर मृत्यु का वरण करता है। जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है। जैन धर्म के शास्त्रों के अनुसार यह निष्प्रतिकार-मरण की विधि है। इसके अनुसार जब तक अहिंसक इलाज संभव हो, पूरा इलाज कराया जाए। मेडिकल साइंस के अनुसार जब कोई अहिंसक इलाज संभव नहीं रहे, तब रोने-धोने की बजाय शांत परिणाम से आत्मा और परमात्मा का चिंतन करते हुए जीवन की अंतिम सांस तक अच्छे संस्कारों के प्रति समर्पित रहने की विधि का नाम संथारा है। इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। इसे धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को ससम्मान जीने की कला कहा गया है।

जैन धर्म के अनुसार आखिरी समय में किसी के भी प्रति बुरी भावनाएं नहीं रखीं जाएं। यदि किसी से कोई बुराई जीवन में रही भी हो, तो उसे माफ करके अच्छे विचारों और संस्कारों को मन में स्थान दिया जाता है। संथारा लेने वाला व्यक्ति भी हलके मन से खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा और समाज में भी बैर बुराई से होने वाले बुरे प्रभाव कम होंगे। इससे राष्ट्र के विकास में स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा। इसलिए इसे इस धर्म में एक वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधि माना गया है।