मेरे मित्र और छोटे भाई श्री अफजल खां अफजल के पिता स्व. श्री अब्दुल खां पठान मेरे मेरा पिता स्व. राधाकिशनजी के परम मित्रों में से एक थे। यही कारण है कि बचपन से ही मेरा उनसे जाना पहचाना संबंध था। अफजल खां अफजल ने जब दो-तीन साल पहले जयवर्द्धन में “मेरा गांव मेरे लोग” कॉलम लिखना प्रारम्भ किया, तो कांकरोली गांव के लगभग 74 दिवंगत महापुरूषों के बारे में उनकी योग्यता और उनके उत्कृष्ठ कार्यों की जानकारी आज की नई पीढ़ी को हुई। यहां के बाशिन्दों को यह जानने का मौका मिला कि हमारे पुरखों ने किस तरह अपना जीवन इस कांकरोली में गुजारा और अच्छे इंसान होने का जज्बा आने वाली पीढ़ियों को दिया।
मैंने अनेक बार भाई अफजल से कहा तुम गांव के इतने दिवंगत लोगों के बारे में लिख चुके हो, तो अपने पिता स्व. अब्दुल खां पठान जी के बारे में भी तो कुछ लिखो । तो वे बार-बार वे बस यही दोहरा देते अब मैं अपने पिता श्री के बारे में क्या लिखुं, दोस्त समय मिला तो पूरा का पूरा उपन्यास ही उनके बारे में लिखूंगा। तो मैंने अपना फैसला भाई अफजल को सुना दिया तो फिर ठीक है, मैं बहुत कुछ तो तुम्हारे पिताजी के बारे में जानता ही हूं। बाकी जानकारी तुमसे लेकर मैं उनके बारे में मेरे गांव मेरे लोग में लिखूंगा ।
मेरे पिताश्री के वे परम मित्र थे, जब मेरे पिता निझरना खिड़क में मुखिया थे, तब भी स्व. अब्दुल खां जी अपने कोयला व्यवसाय के लिए निझरना आते जाते थे और कभी – कभी खिड़क में ही रात गुजारा करते थे। उनके डिलडाल चालढाल और बोलने के लहजे से मैं बहुत प्रभावित था और स्कूल में उनका बेटा अफजल मेरा साथी मैंने तुरन्त उनके बारे में लिखने का फैसला कर लिया।
अफगानिस्तान के एक छोटे से गांव सवाबशाही, जो उस समय हिन्दुस्तान की सरहद से लगभग 30 मील की दूरी पर था और अब पाकिस्तान की सीमा से 30 मील दूर है। एक मेहनतकश किसान स्व. हजरत खां जी के चार लडकों में सबसे छोटे लडके का नाम स्व. अब्दुल खां जी का जन्म सन् 1886 ईस्वीं में हुआ और वहीं एक कबीले में वहां के रीति रिवाज के अनुसार अपना बचपन गुजार जब जवानी में कदम रखा तो रोजी रोजगार के लिए अपने सबसे बड़े पड़ौसी शहर कराची में आकर काम धंधे की तलाश में लग गए। कई पापड़ बेले, मेहनत मजदूरी की, तभी सन् 1910-11 में ब्रिटिश एयरलाइन्स के बर्माशेल कम्पनी ने कराची से राजसमंद ग्वालियर और मद्रास तक पानी में उतरने वाले हवाई जहाज का संचालन प्रारम्भ किया, तो कराची में बतौर कर्मचारी उनकी नौकरी लग गई और वे कराची में ही अपनी सेवाएं देते रहे। अंग्रेजों की हुकुमत थी, अंग्रेजों के कई बड़े- बड़े अफसर स्व. अब्दुल खां जी के काम से खुश थे। लगभग 15-16 साल तक वे कराची में ही काम करते रहे, तभी सन् 1938 में उनका तबादला कराची से राजसमंद कर दिया गया और वे राजसमंद जहां उस समय पानी में हवाई जहाज उतरा करते थे, अपना कार्य करने लगे। राजसमंद उस समय प्रकृति का एक अनुपम उपहार था। राजसमंद का पूरा का पूरा भरा रहना चारों ओर हरियाली पहाड़ और अरावली के पहाड़ों के जंगल बरबस सबका मन जीत लिया करते थे। उन्हें यह जगह बहुत पसन्द आई, उनकी पत्नी रहमत और बानु व मुन्नी दो लड़कियां और एक शाहबाज खां लड़के के साथ आराम से छीपों के मोहल्ले में घर किराया लेकर रहे थे, तभी इसी राजसमंद में उनके लड़के शाहबाज की डूब कर मौत हो गई। उसके कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी रहमत भी दुनिया छोड़कर चले जाना उनके लिये बहुत बड़ा आघात था। जैसे तैसे अपने को संभाल उन्होंने अपनी दोनों पुत्रियों बानू का शहादत खां जी के साहबजादे स्व. मीर खां जी पोस्ट मास्टर साहब व मुन्नी की शादी बड़गांव उदयपुर के स्व. मुराद खां जी के साथ कर दी और वे बिल्कुल अकेले हो गए। तभी सन् 1940 में राजनगर निवासी स्व. जीवन खां ठेकेदार की लड़की कुलसुम के साथ उनका दूसरा विवाह सम्पन्न हुआ और सन् 1942 में उनके एक ओर पुत्र हुआ, जिसका नाम अफजल खां रखा गया, जो मुझे आज ये सब जानकारियां दे रहा है। सन् 1947 में देश आजाद हुआ और उसके साथ ही देश का बंटवारा भी महत्वकांशी नेताओं के कारण अखण्ड भारत के दो टुकड़े हो गए और शुरू हो गया एक ऐसा ताण्डव, जिसने इंसानियत को झकझोर कर रख दिया। जो जहां था वहीं रह गया, रिश्ते, नाते, प्रेम व्यवहार, सब धरे के धरे रह गए। ऐसे समय में स्व. अब्दुल खां जी ने खुब चाहा की, वह अपने वतन अफगानिस्तान चले जाएं, पर पत्नी व पुत्र के मोह और यहां की संस्कृति का स्वाद उन्होंने इतने वर्षों से चखा उसे छोड़कर उन्होने यहां से जाने का ईरादा छोड़ दिया। अंग्रेजजन जा चुके थे नौकरी भी उनकी जा चुकी थी। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और मेहनत मजदूरी कर रहने लगे। धीरे – धीरे उन्होंने मनिहारी दुकान का काम चालु किया । फिर चश्मे बेचने का भी काम किया। वे इत्र व तेल भी बेचने लगे, पर जल्दी ही उन्हें एक और काम ने आकर्षित किया और वो काम था, लकड़ी के कोयले का वे सुदुर गांवों में कोयले का भट्टा बना कोयला बना कांकरोली, आमेट, नाथद्वारा, चारभुजा आदि स्थानों पर कोयले की बोरियां बेचने लगे। यह व्यापार चल निकला और वे कोयले वाले पठान के नाम से आस पास के सभी गांव व कस्बों में पहचाने जाने लगे। उन दिनों गैस तो थी नहीं, कोयला ही सभ्रांत परिवारों के लिए अच्छा ईंधन था । अतः उनका व्यापार खूब अच्छा चल निकला। कांकरोली द्वारकाधीश मंदिर में भी भण्डार में इनका ही कोयला जाया करता था। अतः मंदिर मण्डल के अधिकारी व कर्मचारियों से आपके अच्छे संबंध हो गए और मंदिर का प्रसाद भी उन्हें मिलने लगा। बस फिर क्या था, वे यहां की संस्कृति में रम बस गए।
स्व. अब्दुल खां जी के बारे में यहां के बुजुर्ग सभी जानते हैं कि किस सादगी सद्भाव और मिलनसार के साथ वे इतनी दूर अफगानिस्तान से आकर यहां घुल मिल गए। यहां की संस्कृति से जुड गए, जबकि उनकी मातृभाषा पश्तो थी, फिर भी वे पश्तो ट्युन में हिन्दी को बोला करते तो लोगों को बड़ा आनन्द आया करता था। अपने ससुर स्व. जीवन खां जी के रसुख से महाराज श्री ने एक 60 फीट गुणा 40 फीट का प्लॉट चौमुखा महादेव मंदिर के सामने 26 रुपए नजराने के एवज में दिया, जिस पर दो कमरे बना किराए का मकान छोड़ अपने खुद के मकान में रहकर उन्हें बडा सुकून मिला। सन् 1950-51 में मकान बना, उस वक्त वहां कुछ भी नहीं था। हां कलकल करती नहर बहती थी और पडौसी थे, चौमुखा महादेव और उनका मंदिर। सलूस रोड की सड़क भी नहीं थी, जब सलूस बना, तब बनी । कांकरोली से राजनगर सड़क कच्ची थी, चारों ओर खेत ओर सुनसान जंगल था। शाम 6 बजे के बाद मकान का दरवाजा बंद कर दुबक जाते थे, पास की पहाडियों से जरख, लोमड़ियां, नहर का पानी पीने आते जानवरों का शिकार करते थे। धीरे-धीरे मकान बनने लगे और आज क्या है, जो आपके सामने है।
स्व. श्री अब्दुल खां जी लगभग 107 वर्ष तक जिन्दा रहे, पर न तो कभी बीमार पड़े और न ही घर पर कभी आराम किया। उनका बेटा अफजल और मेरी अध्यापक की ट्रेनिंग एसटीसी हमने साथ की और नौकरी भी लग गई। तब अफजल ने अपने पिता से कहा अब आप घर पर आराम कीजिए। मेरी नौकरी लग गई है। मैं घर चला लुंगा। अब्दुल खां जी तुरन्त बोल पड़े, चल हट तेरा काम कर, मुझे अपना काम करने दें। रही तेरे घर चलाने की बात तो क्या मैंने आज तक तुझसे एक पैसा भी लिया है और तू जब पहली तनख्वाह मेरे पास लेकर आया, तब भी मैंने कह दिया था कि बेटा तु तेरी चिन्ता कर मैं जब तक जिन्दा हूं, अपना घर चलाने दें। काम करने दे और हां अगर तूं मुझे काम नहीं करने देगा, तो मैं जिन्दा नहीं रहूंगा। हुआ भी ऐसा ही एक मोटरसाइकिल वाले ने 107 साल की उम्र में उनको टक्कर मारी और उनके कुल्हे की हड्डी टूट गई और वे तीन चार माह में ही सन् 1993 में स्वर्ग सिधार गए। अल्लाह उन्हें जन्नत में आला मुकाम अत्ता फरमाए, उन्हें स्वर्ग में जगह दे । मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि ।
फतहलाल गुर्जर “अनोखा” वरिष्ठ साहित्यकार कांकरोली, राजसमंद