Charbhuja temple rajsamand : पांडवों ने भी की थी तपस्या : चारभुजा मंदिर के इतिहास की कहानी

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जिस तरह हिन्दू धर्म शास्त्र के तहत देश के चारधाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री में से एक भी जगह नहीं जाए, तो इसे अधूरी यात्रा माना जाता है। ठीक वैसे ही आन, बान व शान व धर्मनगरी के लिए देश- दुनिया में विख्यात मेवाड़ में भी चारभुजा धाम है, जिसमें हर एक धार्मिक स्थल का अलग इतिहास, चमत्कार व आस्था है। ऐसे में माना जाता है कि जो मेवाड़ की यात्रा पर आए और चार धाम में शामिल राजसमंद जिले के गढ़बोर में स्थित चारभुजानाथ के दर्शन नहीं करें, तो उनकी यात्रा अधूरी ही रहेगी। जन जन की आस्था के केंद्र चमत्कारिक चारभुजा मंदिर का इतिहास भी पांडवों से जुड़ा है। बताते हैं पांडवों ने ही चतुर्भुज यानि विष्णु रूपी प्रतिरूप की स्थापना कर तपस्या की थी। बाद में तत्कालीन राजा गंगदेव ने भव्य मंदिर बनाया था और आज यहां देश के विभिन्न अंचलों से लाखों लोग आते हैं।

यह ऐतिहासिक प्राचीन चारभुजानाथ का मंदिर राजसमंद जिले के गढ़बोर कस्बे में स्थित है। यह मंदिर उदयपुर से 112 और कुम्भलगढ़ से 32 किलोमीटर की दूरी पर है। बताते हैं कि चारभुजाजी की यह पौराणिक व चमत्कारी प्रतिमा हैं। यह मंदिर बद्रीनाथजी का प्रतिरूप भी माना जाता है। करीब 5285 साल पहले पांडवों के हाथों स्थापित इस मंदिर में कृष्ण का चतुर्भुज स्वरूप बिराजित है। यह मंदिर अभी देवस्थान विभाग के अधीन है, जहां की सारी व्यवस्थाएं आज भी देवस्थान विभाग के माध्यम से की जाती है। सेवा पूजा के लिए पूजारीगण स्वतंत्र है, मगर अन्य सारी व्यवस्थाएं देवस्थान विभाग ही देखता है और यहां मंदिर के साथ धर्मशालाएं भी देवस्थान विभाग की ही है।

सेवा- पूजा करने वालों के लिए भी चुनौतीपूर्ण तपस्या

मेवाड़ और मारवाड़ के आराध्य चारभुजानाथ (गढ़बोर) मंदिर की परंपराएं और सेवा-पूजा की मर्यादाएं अनूठी हैं। यहां ठाकुरजी की पूजा गुर्जर समाज के 1000 परिवार करते हैं, जो बारी बारी (ओसरा) से एक एक माह तक सेवा व पूजा करते हैं। इसके अनुसार कुछ परिवारों का नंबर जीवन में सिर्फ एक बार (48 से 50 साल में) आता है, तो किसी परिवार के सेवा का मौका महज 4 साल के अंतराल में ही आ जाता है। इसके पीछे किसी परिवार की कई पीढ़ियां आगे बढ़ने और किसी परिवार का छोटा होना वजह है। प्रतिमाह की अमावस्या को ओसरा बदलता है, जिससे अगला परिवार मुख्य पुजारी बन जाता है। ओसरे के दौरान पाट पर बैठ चुके पुजारी को एक माह तक तप, मर्यादा में रहना पड़ता है। यदि किसी कारणवश मर्यादा भंग हो जाती है, तो पुजारी स्नान करके नई धोती पहन लेता है, जिसके परिवार या सगे संबंधियों में मौत होने पर भी वह घर नहीं जाता है और पूजा का दायित्व निभाता है। साथ ही जो भी व्यक्ति निज मंदिर में ओसरे के तहत पूजा करता है, वह किसी भी तरह के व्यसन से दूर रहता है और बदन पर साबुन नहीं लगाने, ब्रह्मचर्य पालन की मर्यादाएं निभाते हैं। भगवान की रसोई में ओसरा निभाने वाले परिवार द्वारा चांदी के कलश में लाए गए जल का ही उपयोग किया जाता है।

राजा गंगदेव ने 1444 ईस्वीं में बनवाया था मंदिर

बताया जाता है कि तत्कालीन राजा गंगदेव को सपने में ठाकुरजी ने दर्शन देकर जलमग्न प्रतिमा के बारे में बताया। तब राजा ने 1444ईस्वीं में गढ़ यानि किले में प्रतिमा स्थापित कर दी थी। फिर मुगल आक्रमण से बचाने के लिए कई बार इस प्रतिमा को फिर जलमग्न रखा गया। फिर राजा गंगदेव ने मंदिर का निर्माण करवाया और बाद में इस मंदिर के संरक्षण व संवर्द्धन को लेकर मेवाड़ राजघराने की अहम भूमिका रही। आज भी मंदिर में मेवाड़ के राजाओं के चित्र है। तत्कालीन समय में मंदिर की सेवा पूजा राजघराने के अधीन ही थी। फिर औरंगजेब जब हिन्दू मंदिर तोड़ रहा था, तब फिर चारभुजाजी की प्रतिमा को जलमग्न कर बचाया था।

चारभुजानाथ मंदिर से जुड़ी दो कहानियां

किवदंती 1

  • चारभुजाजी मंदिर से जुड़ी एक दंत कथा भी काफी प्रचलित है। कथा के मुताबिक श्रीकृष्ण ने खुद गौलोक जाने की इच्छा व्यक्त की एवं उद्धव को तप का आदेश दिया। तब उद्धव बोले कि आपके जाने की खबर सुन पांडव व सुदामा जी नहीं पाएंगे। इस पर श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा व बलराम की मूर्ति बनाकर पांडव व सुदामा को देने के लिए राजा इंद्र को सुपूर्द की। साथ ही बोले कि मैं इन प्रतिमाओं में हमेशा रहूंगा और जैसे इन प्रतिमाओं की सेवा, पूजा करेंगे, उनकी मनोकामना पूरी होगी। इसके तहत राजा इंद्र के माध्यम से मिली चारभुजाजी की मूर्ति को साथ लेकर पांडव गढ़बोर पहुंचे थे, तब यहां उनकी सेवा पूजा की थी। साथ ही सुदामा द्वारा जिस मूर्ति की पूजा की गई थी, वह भगवान रूपनारायण बताए जाते हैं, जो गढ़बोर के पास ही सैवंत्री गांव में है और वहां भी भव्य मंदिर बना हुआ है। फिर पांडव उस प्रतिमा को जलमग्न करके हिमालय चले गए थे, ताकि प्रतिमा का अपमान न हो।

किवदंती 2

  • सुराजी महाराज गाय चराते थे और जब गायों को चराकर वापस घर लौटते थे तो एक गाय के थन में दूध ही नहीं रहता था, जिससे उसका बछड़ा काफी परेशान हो जाता। बार बार ऐसी घटना होने पर सुराजी ने सोचा कि आखिर हो क्या रहा है, रोज एक गाय का दूध कहां चला जाता है, तो एक दिन सुराजी ने दिनभर उस गाय की रखवाली की, तो पता चला कि गाय एक पहाड़ी के पीछे जाती है, जहां पर अपनेआप थन से दूध निकलता है। इस पर सुराजी महाराज ने ईश्वर को याद किया कि ऐसा क्यों हो रहा है। फिर उनके सपने में ठाकुरजी ने दर्शन दिए और कहा कि जिस जगह गाय दूध दे रही है, उस जगह नीचे प्रतिमा है, जिसे स्थापित कर पूजा करें। तब सुराजी ने कहा मैं सेवा पूजा कैसे करूं, मेरे, गाय- भैंस व बकरी कौन पालेगा। तब प्रभु ने कहा सेवा पूजा करों, तुम्हारे परिवार का गुजारा चलता रहेगा। तब से गुर्जर परिवार सेवा पूजा करता है और आज भी पुजारीगणों के घर पर बकरी नहीं है।
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सेवा, पूजा के साथ रोज लगते हैं कई पकवानों के भोग

चारभुजा मंदिर में प्रतिदिन सेवा, पूजा व भोग की अनूठी परम्परा है। यहां चारभुजानाथ को मक्खन, केसरिया चावल, लपसी, सादा चावल, कसार, दूध प्रसाद और गोला मिश्री का भोग लगाया जाता है। साथ ही मंदिर में शंख, चक्र, गदा, ढाल-तलवार, भाला पूजनीय हैं। कहा जाता है कि चारभुजाजी की प्रतिमा स्थापना के बाद पांडवों ने बद्रीनाथ जाकर प्राण त्यागे थे। मंदिर में आरती के दौरान जब गुर्जर परिवार के पुजारी जिस प्रकार से मूर्ति के समक्ष खुले हाथो से जो मुद्रा बनाते है और जिस प्रकार नगाड़े व थाली बजती है, वो पूर्णत वीर भाव के प्रतीक है। शायद इसीलिए चारभुजाजी की उपासना गुर्जरों द्वारा की जाती है। मगर यहां दर्शन सदैव खुले रहते हैं।

निज मंदिर में सोने-चांदी की परत

चारभुजानाथ के निज मंदिर के मुख्य द्वार से लेकर अंदर चारों ओर सोने व चांदी की परत लगी है। अन्दर सोने व कुछ जगह चांदी की परतें चढ़ी है। मुख्य मूर्ति एक ऊंचे आसन पर विराजमान है और चारभुजानाथ की मूर्ति सुदर्शन स्वरुप की है, जिसकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और कमल पुष्प धारण किए हुए हैं। यह स्वरुप दुष्टों का संहार करने वाला है। इस मूर्ति को अत्यंत प्राचीन और बड़ी चमत्कारी माना गया है। मूर्ति के नेत्र स्वर्ण निर्मित और अद्भुत है। शृंगार और पूजा पद्धति में भी शौर्य और पराक्रम के भाव निहित है।

शंख- चक्र चंहु हाथ बिराजे, गदा पदम् धूति दामिनी लाजे।
रूप चतुर्भुज महामन भाता, फल पुरुषार्थ चतुष्टय दाता।
दुष्ट जनन के हो तुम काला, गो ब्राह्मण भक्तन प्रतिपाला।।

shree charbhuja nath ji mandir garhbor photos

कुछ ऐसा है अंदर व बाहरी मंदिर का आवरण

मंदिर की सीढियों पर दोनों तरफ हाथी पर महावत सवार मूर्तियां है। उसके आगे मुख्य प्रवेश द्वार का नाम चांदपोल है। उसके दोनों तरफ द्वारपाल (जय विजय) की आदमकद मूर्तियां है। द्वार में प्रवेश करते ही मंदिर की तरफ मुख किए हुए पांच गरुड़ आसीन है, जिनके ऊपर गोप वंशज सुराजी बगड़वाल की मूर्ति है। फिर निज मंदिर की दीवारो पर कांच की अद्भुत कारीगरी दिखती है। मूर्ति बड़ी आकर्षक है एवं मन को असीम शान्ति प्रदान करने वाली है। निज मंदिर के बाहर मंडप के दायीं और बायीं तरफ दो नर व नारायण के मंदिर बने हुए हैं, जो वर्तमान में बंद है। मुख्य मंदिर के बाहर दाईं तरफ दो छोटे छोटे देवालय है, जिसमें एक विधाता माता बिराजित है, तो दूसरे में ब्रम्हा, विष्णु, महेश है। दोनों में अत्यंत प्राचीन मूर्तिया है। मुख्य मंदिर के बायीं तरफ एक दो मंजिला पांडाल बना है, जिसमे श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अत्यंत सुन्दर चित्रांकन है। मंदिर के ठीक सामने जितना ऊंचा नक्कारखाना है, जिसमें मध्य भाग में माताजी की मूर्तियां है। उसके नीचे शिलालेख अंकित है। नक्कारखाने में दायी तरफ प्रवेश करते ही बजरंगबली की मूर्ति है और आगे गणेशजी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर की सीढिय़ों के दायी तरफ चबूतरे पर तीन प्राचीन शिलालेख में मंदिर का इतिहास अंकित है।

फागोत्सव और जलझूलनी मेला भी अनूठा

गढ़बोर की परंपरा के अनुसार चारभुजानाथ के भाद्रपद मास की एकादशी (जलझुलानी एकादशी) को हर साल विशाल मेला लगता है। इसे लक्खी मेला भी कहते हैं, जिसमें लाखों लोग शामिल होते हैं। इसके तहत ठाकुरजी के बाल स्वरूप को सरोसर स्नान के लिए ले जाता जाता है। सोने के बेवाण में ठाकुरजी दूध तलाई तक जाते हैं और वहां वापस शाम को चांदी की पालकी में मंदिर लौटते हैं। हजारों पूजारीगण और भारी पुलिस सुरक्षा प्रबंध के बीच ठाकुरजी का बेवाण निकलता है। चित्तौड़गढ़ के सांवलियाजी के बाद गढ़बोर में चारभुजानाथ का यह जलझूलनी मेला राज्य का सबसे बड़ा मेला रहता है।

होली पर 15 दिन का फाग महोत्सव होता है, जिसमें गुलाल- अबीर के साथ गैर नृत्य करने की अनूठी परम्परा है। फाग महोत्सव में चारभुजानाथ के दर्शन करने के लिए देशभर से लोग आते हैं। 15 दिन तक रोज ठाकुरजी को बाल स्वरूप में लाड लड़ाए जाते हैं। पुजारी परम्परानुसार हरजस का गायन करते हैं और ठाकुरजी के समक्ष नृत्य करते हैं। उनके बाल स्वरूप को झुला झूलाया जाता है। इसके तहत पूरा गढ़बोर कस्बा गुलाल अबीर के रंग में रंगा नजर आता है।

इसी तरह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमीं के साथ अन्य सभी तरह के पर्व भी अन्य जगहों की अपेक्षा अलग तरीके से मनाए जाते हैं। यहां पर रावण पुतला दहन की भी अनूठी परम्परा है, जहां पर पत्थरों से चुनाई कर रावण का पुतला बनाया जाता है, जिस पर मटकियां रखी जाती है और उसे बन्दूकों से फोड़ने की परम्परा है। यहां पर रावण के पुतले को जलाया नहीं जाता है, बल्कि बन्दूकों व पत्थरों से छलनी किया जाता है।

चारभुजा मंदिर दर्शन टाइम : Charbhuja mandir darshan time

  • प्रतिदिन सुबह 5 बजे मंगला दर्शन
  • सुबह से शाम तक लगातार दर्शन खुले रहते हैं
  • दोपहर में भोग के दौरान आंशिक तौर पर दर्शन रहते हैं बंद
  • मंगला 5.00 बजे शृंगार 8.30 बजे
  • माखन मिश्री भोग 9.30 बजे राजभोग 12.30 बजे
  • कसार आरती 4.00 बजे संध्या आरती 6.30 बजे
  • शयन 10.00 बजेे
    नोट : दर्शन समय में आंशिक परिवर्तन संभव है।

श्रीएकलिंगजी मंदिर, कैलाशपुरी

  • सुबह 04.30 से 6.30 बजे तक
  • दोपहर 10.30 से 12.45 बजे तक
  • शाम 05.00 से 07.30 बजे तक
    नोट : दर्शन समय में परिवर्तन संभव है।

द्वारकाधीश मंदिर, कांकरोली

  • मंगला 7.15 बजे शृंगार प्रवेश नहीं
  • ग्वाल प्रवेश नहीं राजभोग 11.00 बजे
  • उत्थापन प्रवेश नहीं भोग प्रवेश नहीं
  • आरती 5.00 बजे शयन 6 बजे
    नोट : दर्शन समय में आंशिक परिवर्तन संभव है।
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