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Holi Festival : होली के पर्व पर ढूंढ रो जलसो, क्या होती है ढूंढ परम्परा, Dhoodha festival की रोचक कहानी

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Holi Festival : चौबीस गावां रां ठाकर चौबीसा भटसिंहजी, रे कुंवर साब शेरसिंहजी ने परणायां ने पांच बरस वेई गिया, पण पोता रा दर्शन नी वीया। शिवजी री घणी सेवा कीदी। महादेवजी ने मनाया। आधुनिक इलाज बी घणा कराया। भगवान री कृपा सूं शेरसिंहजी रे सपूत साब जन्मया। घणो हरख मनायो। सगा, गिनायत, अर यात दोस्त राजी वीया।

Holi Festival : मोटा ठाकर तो ठकराई बी जतावणाी पड़े। होली रो उत्सव आयो। पोता रे ढूंढ रो जलसो राख्यो। कुंवर शेरसिंहजी पढ्या लिख्या राज रा नौकर हां। वणां रे यार दोस्तां रो बी घणो टोलो हो। ढूंढ रा जलसा माय आपणा इलाका में छोड़ सौ सौ कोस सूं बी नुवां पावणां ने बुलाया। भाई बहन, भुआ भतीजी, मामा- मामी, सगला नन्हा सा बालक ने लाड़ लडावे। हाथां सूं नीचे नी उतारे। शेरसिंहजी रा तो पग धरती माथे नी पड़े। दो बार जीमण राख्यो। एक तो सगा गिनायत अर समाज रा सिरदारा ने नूत्यां। दूसरा जीमण नगरभोज राख्यो जिणमें सैतीस ही कौम रा मिनखां ने बुलाया। जलसा मायं जोश अर उत्साह रे सागे पुराना रीति रिवाजां ने भी पालन करवा रो प्रयास आख्या बन्द करीने कीदो। पहला जीमण री दावत शुरू व्ही। दिन माय दो बज्यां जीमण री जाजम बिछाई। पांत्या लगाया। घर रा आंगणा रे आगे खुला चौगान माय। पनांत्या लागता ही तो कांच री चमचमाती गिलासां सामूं राखी ने देशी विदेशी रंग रंगीलो पीवा रो साधन परूस्यो। सौ सौ काेस सूं आया नूवां पावणां तो देखता ही रेई गिया के यो कांई? बाल ने जन्म री खुशी माथे जो जो परम्परा पूरी करां वोइज गुण अर संस्कार पैदा व्हे।

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Holi : घर री लुगाया बैठी ही, बालक बैठा हा अर बड़ा बुजूर्ग सिरदार सामे बिराज्या थका हा। आधुनिकता रो चोलो पेरिया नवयवुक कांच री गिलासां सूं पीवण लाग्या। सागे पकोड़ी नमकीन री परूसगारी चालू ही। समझ में नी आयो के परिवार री मरयादा, छोटा बड़ा रो काण कायदो कठे गियो ? खैर पीवा तक वात वेती तो चालतो। अबे जीमण री वेला आइ्र तो सौ सौ कोस रा पावणां तो घर मायं घुस गिया। खावा री वस्तु रो नाम सुणता ही थर थर धूजवा लागा। कालजो कांपवा लागो। यो कांई ? बालक रे जन्म रा उत्सव माथे गलत परम्परा। मांसाहारी जानवरां रो भोजन देव तुल्य योनि रा मिनख कर रह्या है।

Holi Festival : पंगता मायं मेहमान जीमवा लागा ने बाड़ा माय सूं बकरिया बरड़ायी। दो चार तो रस्सी तोड़ीन पगता मायं फरवा लागी। कुंवर शेर सिंहजी बोल्या- इण बकरिया ने बड़को परो नाको, बरड़ाती बंद वेई जावेला। पण यो कांई ? बकरियां तो पंगत री पातला ने सूंघवा लागी। ठाकरां रे घरां एक जीव जन्मयो जीण री खुशी मायं म्हारा कितरा जीव, जीव सूं गिया। शायद इण पतल मायं म्हारा कालजा रो टुकड़ो तड़फतो व्हेला। अठे म्हारा बेटा रा शरीर रो टुकड़ो व्हेला। नी जाणे कस्यी पंगत री पतल सागे म्हारा लाड़ला रो अवशेष व्हेला। इण भाव सूं बकरियां ममता ने मार ने आंसू ढलकाती रेई पण सगळा सिरदार तो ठिकाणा मायं आयोड़े नुवे जीव रे खातर अणी जीवां ने अरोगवा में मसगुल हा। सौ सो कोस सूं पधारिया पावणा यो देखीन होचवा लागां के एक मां री कूंख री खुशी मायं पांच पांच माता री कूंख उजाड़णी कद बंद होसी। जीव तो जीव है। माता री ममता तो चाहे मानव व्हे या पशु सगला में ईश्वर बरोबर बख्साई है।

क्या है ढूंढ परम्परा : Dhoodha festival of children born

होली के दिन वर्षभर में जन्मे हर बच्चे को ढूंढ करने की एक पुरातन परम्परा है। यह राजस्थान में हिन्दू समाज द्वारा एक अनुष्ठान के रूप में किया जाता है। ढुंढ (ढूंढ) राजस्थान में एक हिंदू अनुष्ठान है। यह होली पर एक वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों पर किया जाता है। यह अनुष्ठान पुण्यजन्म के समान हो सकता है, जो तमिल नवजात शिशु के नामकरण समारोह के लिए करते हैं। यह विशेष रस्म मेवाड़ व मारवाड़ में काफी प्रचलित है। कुछ जगह इसे बड़े आयोजन के रूप में भी मनाते हैं, जिसमें सभी मित्र, रिश्तेदारों को आमंत्रित करके सामूहक भोज का आयोजन भी रखा जाता है। वर्षभर में जन्मे बच्चों के लिए ढूंढ की रस्म महत्वपूर्ण मानी गई है। ढूंढ होली से पहले वाली फागुन की ग्यारस को पूजा जाता है, तो कहीं कहीं होली के दिन ही बच्चों को ढूंढने की परम्परा है। जिस घर में बेटे का जन्म होली के पहले होता है, वहां यह रस्म ज़रूर निभाई जाती है। अब बेटियों के जन्म के उपरांत भी ढूंढ की पूजा होने लगी है। मान्यता है कि जब तक बच्चे की ढूंढ की पूजा नहीं होती, तब तक बच्चे के मस्तक पर तिलक भी नहीं लगाया जा सकता है। इस पूजा के बाद ही सीधा तिलक लगाते हैं। ढूंढ की पूजा के लिए बच्चे के मामा कुछ उपहार व कपड़े लाते हैं जिसमें बच्चे के सफ़ेद वस्त्र, मां के लिए पीले वस्त्र (लहंगा-ओढ़नी), सवा सेर फूल, बताशे, मिठाई, सिंघाड़े और नेग शामिल होता है। ढोल के धूम धड़ाके के साथ गांव के कुछ लोगों की टोली घर घर पहुंचती है, जिस घर में बच्चे का जन्म हुआ हो, वहां पर ढोल बजाया जाता है। साथ ही उनके घर के आंगन में चौक बनाने की रस्म निभाई जाती है। बच्चे को गोद में बिठाने के बाद बच्चे के दीर्घायु होने की कामना की जाती है। अंत में वहां आए सभी लोगों को गुड़, मिठाई का वितरण किया जाता है।

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March-2024

नारायण सिंह राव ‘निराकार’
शिक्षाधिकारी व साहित्यकार
गणेशनगर, जावद, राजसमंद
मो. 94134-23585

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