आजादी के पहले तक सामाजिक सरोकार के साथ राजनीति को भी सेवा का पथ ही समझा जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति का जुनून जिसके सिर चढ़कर बोलता था, वो आडंबर हीन होकर राजनीतिक गतिविधियों में अपना सर्वस्व न्योछावर करता था। जिंदा रहता तो मिलती काल कोठरी और मृत्युपरांत गुमनामी या शहीदी दर्जा। संपत्ति के नाम पर होता था तो सिर्फ कंधे पर लटकता झोला और झोले में एक जोड़ी कपड़े और रामायण या गीता की पोथी।
सेवा, मतलब घर फूंक तमाशा देखने का शौक। उस कालखंड में सेवा के माध्यम से गरीब के घर में दीया जलाकर तिमिर को दूर भगाने वाले पैरों के निशां मिलना तो दूर, आहट भी नहीं सुनाई देती थी। लेकिन आज गरीब के घर में कदम रखने से पहले फोटो सेशन की गूंज सुनाई देती है। उन चित्र मालाओं को सोशल मीडिया में पोस्ट करके उस गरीब के बचे, खुचे और सिमटे स्वाभिमान को भी जमींदोज कर दिया जाता है। उसे यह अहसास दिलाया जाता है जैसे कि हम ही तेरे भाग्य विधाता हैं। क्यों नहीं चुपके से मदद करके इंसान को इंसान होने का एहसास दिलाते ? वह भी तो उसी परमात्मा की संतान है, जिसने तुम्हें पैदा किया है।
देश की स्वतंत्रता के बाद राजनीति के मायने ही बदल गए। आजादी के पहले तक जिस कार्य को राष्ट्र सेवा का अंग समझा जाता था, आजादी के बाद उसे ऐश्वर्य प्राप्ति और संपन्नता की सीढ़ी बना दिया गया। व्यापार के माध्यम से अर्थ का उपार्जन करना नीतिगत होता है लेकिन अब राजनीति को ही व्यापार बना दिया गया। जिसका जितना निवेश उसका उतना ही लाभांश।
यहीं से शुरू होती है भ्रष्टाचार की अमरबेल। जो बेल राजनीति के चरित्र में ही समाहित हो गई हो उसका नष्ट होना आसानी से संभव नहीं। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में उतरने वाला प्रत्येक व्यक्ति मैला ही होता है लेकिन अधिकांश पर यह छींटे तो पड़ते ही है। चुनाव में करोड़ों रुपए खर्च करने वाले व्यक्ति से सेवा की अपेक्षा रखना ही बेमानी है।
सच्ची सेवा ही करनी थी तो यही धन भूख-प्यास से तड़पते उस मासूम की उदर पूर्ति में लगा देते, तार-तार हुए बदन पर मरहम ही लगा देते। उस गरीब के मुख से निकली दुवाओं से घर बैठे गंगा स्नान हो जाता लेकिन काश ऐसा हो पाता .. !!
सेवा से पहले ही जनप्रतिनिधि का तमगा लेने की होड़, भले और बुरे के अंतर को बिसरा देती है। जिस देश में कभी घी-दूध की नदियां बहती थी, उस देश में आज शराब के समंदर खुल गए हैं। एक वोट के खातिर धकेल दिया जाता है उसे डूबने के लिए। अब आप ही सोचिए डुबोने वाले से ही बचाने की अपेक्षा रखना कैसी और कहां की समझदारी है। सही मायने में सेवा के नाम का दंभ भरने वाले लोग सत्ता का नशा करने ही आते हैं। यही है आज की राजनीति भी असली तस्वीर। किसी ने सच ही कहा है ..
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को
बस एक ही उल्लू काफ़ी था
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा।।
बबूल के पेड़ से आम की तमन्ना करना महामूर्खता है। जो बीज हमने डाला है फसल तो उसी की लगेगी न ! नई फसल लेनी है तो पुरानी जड़ों को खोदकर नया बीज रोपना ही होगा। दूसरों को रौंद कर कुछ पाने की प्रवृति पर अंकुश तो बचपन से माता-पिता को ही लगाना होगा। नैतिक शिक्षा का पाठ पहले विद्यालय में भी पढ़ाया जाता था, जो बंद कर दिया गया। फिर कैसे उम्मीद रखें की राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान बचा होगा। यह सिर्फ इस देश की नहीं, वैश्विक समस्या है। जिसका हल सिर्फ नैतिक शिक्षा में ही ढूंढा जा सकता है।
हां, बीते दशकों में अपवाद भी हुए है। कुछ जाने माने चेहरे आज भी देश और समाज की सेवा कर रहें हैं। ऐसे व्यक्तित्व के कृतित्व को समझने की जरूरत है की आखिर वो किसके लिए कर रहें हैं। जिस दिन हमें यह समझ आ जाएगा की उनका चिंतन मातृभूमि की खुशहाली के लिए ही है, उस दिन सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना छोड़ देंगे।
मधुप्रकाश लड्ढा
लेखक, राजसमंद
mpladdha@gmail.com