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Haldighati ऐतिहासिक स्थल की उपेक्षा, दुनियाभर से आ रहे पर्यटक, मगर जिम्मेदार उदासीन

देश के गौरव का प्रतीक महाराणा प्रताप की रणस्थली से सरकार ने क्रूर मजाक किया है। तभी तो करोड़ों की लागत से हल्दीघाटी में राष्ट्रीय स्मारक का कोई धणी धोरी नहीं है। देशभक्ति और शौर्य की प्रतीक हल्दीघाटी की ऐतिहासिक धरोहर प्रशासनिक उपेक्षा के चलते चलते खुदबुर्द हो रही है। यहां पर गाइड तक की कोई सुविधा ही नहीं है। इसके अलावा हल्दीघाटी दर्रा, खोड़ी इमली, शाहीबाग, रक्ततलाई, चेतक समाधि स्थल के बारे में भी बताने वाला कोई नहीं है। मातृभूमि की रक्षा एवं स्वाभिमान के लिए दुनियाभर में मशहूर यह स्थल पर्यटकों को आकर्षित नहीं कर सका। पर्यटन विभाग ने न तो अपनी वेबसाइट, ब्रोशर और प्रचार सामग्री में राष्ट्रीय स्मारक को तवज्जो दी और न ही यहां कोई टूरिस्ट गाइड तैनात किया।

हल्दीघाटी राष्ट्रीय स्मारक का शिलान्यास 21 जून, 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन राज्यपाल बलिराम भगत, तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री एस.आर. बोम्मई के आतिथ्य में हुआ। केन्द्र व राज्य में सरकारें बदलने से मेवाड़ कॉम्प्लेक्स योजना का काम अटकता रहा। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग और राजस्थान पर्यटन विकास निगम के साझे में सितम्बर 2008 में निर्माण पूरा हो सका। दो एप्रोच रोड, ओपन थियेटर, गार्डन, पार्किंग, बाथरूम-टॉयलेट, परिधि की दीवार, फाउंडेशन, फव्वारा, स्टेच्यू आदि बनाए गए। निर्माण पर उस वक्त 2 करोड़ 4 लाख रुपए तथा प्रतिमा निर्माण पर 11 लाख रुपए व्यय हुए। 21 जून, 2009 को केन्द्रीय मंत्री डॉ. सी.पी. जोशी के मुख्य आतिथ्य में इसका उद्घाटन हुआ। संचालन का जिम्मा जून 2011 को प्रशासन ने आनन फानन में प्रताप स्मृति संस्थान को सौंप दिया। निष्क्रीय समिति को कार्य साैंपने से अब तक कोई ठोस प्रयास नहीं हो पाए। तब से यह ऐतिहासिक स्थल अब सिर्फ चौकीदार के भरोसे ही चल रहा है। भौतिक रूप से रक्ततलाई, शाहीबाग, हल्दीघाटी दर्रा, चेतक समाधी व स्मारक पर पर्यटक जाते भी है, तो वहां कोई सुविधा नहीं और न ही पर्यटकों को आकर्षित करने के कोई प्रबंध है।

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अब जगह जगह से स्मारक की दीवार क्षतिग्रस्त हो रही है, तो स्मारक पर बने उद्यान पर भी ताले जड़े हुए हैं। स्मारक स्थल रख रखाव के अभाव में न तो फव्वारा सेट रहा और न ही लाइटिंग ही सुरक्षित है। लाइटें खुर्दबुर्द हो रही है, तो फव्वारा भी खराब पड़ा है। असामाजिक तत्व लाइटें भी तोड़कर ले गए, जिससे शाम ढलते ही यहां कोई नहीं जा सकता है। सड़क क्षतिग्रस्त हो गई है, तो सुरक्षा दीवार भी जगह जगह से क्षतिग्रस्त हो गई है।

फिर भी यह ऐतिहासिक स्थल खमनोर क्षेत्र की सर्वोच्च चोटि पर स्थल है, जिससे चौतरफा अरावली की वादियों का नजारा भी लोगाें को खूब सुहाता है। यह स्मारक देखने के बाद पर्यटक सीधे नीचे उतरते हैं, तो रोड क्रॉस करते ही सामने चेतक समाधि स्थल बना हुआ है। यह स्थल भी पुरातत्व विभाग व पर्यटन महकमे के अधीन है। यहां पर प्राचीन शिव मंदिर है, जहां आज भी स्थानीय परिवारों द्वारा पूजा अर्चना की जाती है। एक खूबसुरत उद्यान भी विकसित कर रखा है। घूमने व भ्रमण के लिए पाथवे भी बना रखा है। यह मंदिर अति प्राचीन है। चेतक समाधि स्थल पर उद्यान होने से लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बना हुआ है। यहां पर्यटकों की सुविधा को लेकर शौचालय भी बना रखे है, मगर कभी ताले नहीं खुलते, जो बड़ी दु:खद बात है। पर्यटन विभाग द्वारा गाइड तक नहीं लगा रखे है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा चेतक समाधि स्थल पर इतिहास की शिला पटि्टका भी लगा रखी है, जो इतिहास से रूबरू कराती है। इस स्थल की वीडियोग्राफी के लिए शुल्क भी तय कर रखा है, मगर यहां न तो कोई शुल्क लेने वाला और न ही ऐतहासिक धरोहर पर असामाजिक तत्वों की हरकतों को रोकने व टोकने वाला कोई है।

हल्दीघाटी की मिट्‌टी को करते हें नमन

यहां से सीधे खमनोर की तरफ आगे बढ़ते हैं तो हल्दीघाटी दर्रा आता है, जहां पर 18 जून 1576 महाराणा प्रताप व अकबर के बीच युद्ध हुआ था। इस दर्रे में हल्दीघाटी की मिट्‌टी पीले रंग की है। बलीचा से खमनोर मार्ग पर ही यह दर्रा है और इस पीली मिट्‌टी को खोदकर लोग अपने साथ ले जाते हैं। दर्रा फिलहाल घने जंगल से अट चुका है, जहां जंगली जानवरों व कंटीली झाड़ियों के चलते मूल दर्रे में जाना जोखिमभरा है।

हल्दीघाटी का इतिहास भी बड़ा ही अनूठा और रोचक

हल्दीघाटी युद्ध का 18 जून 1576 में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच लड़ा गया था। यह युद्ध राणा प्रताप और अकबर के मध्य हल्दीघाटी नामक तंग दर्रे (राजसमंद) में लड़ा गया। हल्दीघाटी का युद्ध इतना घमासान था कि अबुल फजल ने इसे खमनौर का युद्ध, बदायूंनी ने गोगुन्दा का युद्ध और कर्नल टॉड ने इसे मेवाड़ की थर्मोपोली कहा है। हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की तरफ से सेना नायक मानसिंह और राणा प्रताप की तरफ से हाकीम खां सूर थे। इस युद्ध को लेकर अलग-अलग इतिहासकारों की अलग-अलग राय सामने आती है। यह युद्ध महाराणा प्रताप ने जीता था। हालांकि कुछ इतिहासकार अनिर्णायक युद्ध बताते हैं तो कुछ अकबर को विजेता भी कहते हैं। इस युद्ध में अकबर के पास 80 हज़ार से ज्यादा सैनिक थे, जबकि राणा प्रताप के पास 20 हज़ार सैनिक थे।

युद्ध की भयावहता का वर्णन करते हुए अबुल फजल ने काव्यमय शैली में लिखा है-

“खून के दो समुद्रों ने एक दूसरे को टक्कर दी,
उनसे उठी उबलती लहरों ने पृथ्वी को रंग-बिरंगा कर दिया।
जान लेने और जान देने का बाजार खुल गया।”

उदयपुर के मीरा कन्या महाविद्यालय के प्रोफेसर और इतिहासकार डॉ. चन्द्र शेखर शर्मा ने अपनी रिसर्च में कहा है कि इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने जीत हासिल की थी। डॉ. शर्मा ने अपने शोध में प्रताप की विजय को दर्शाते हुए ताम्र पत्रों से जुड़े प्रमाण पेश किए। उनके अनुसार युद्ध के बाद अगले एक साल तक प्रताप ने हल्दीघाटी के आस-पास के गांवों के भूमि के पट्टों को ताम्र पत्र जारी किए। उस समय यह अधिकार केवल राजा के पास ही होता था। डॉ. शर्मा के मुताबिक यह दर्शाता है कि युद्ध के बाद हल्दीघाटी का क्षेत्र प्रताप के अधीन था। डॉ. शर्मा ने विजय को दर्शाने वाले प्रमाण जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय में जमा कराए।

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