Political sarcasm : आज की बात की शुरुआत अपनी इक ग़ज़ल से करता हूं। खुद को खेवनहार कहने वाले देश की नैया को खुद डुबोकर कर भी अपने को मसीहा बताते हैं। शासक दल चाहे विपक्षी दल जब जनमत पाने की खातिर ऐसा जताते हैं। जैसे ये कोई दानवीर हैं और देश की जनता उनके रहमो करम पर आश्रित है और वोट देने से उसको कितनी सारी खैरात मिलेगी या वो देते रहे हैं, जबकि वास्तविकता बिल्कुल विपरीत है। कोई राजनेता कोई शासक जनता को कुछ भी नहीं देता है, बल्कि सत्ता पाकर खुद ये सभी बोझ बन जाते हैं और वो बोझ इनकी सुख सुविधाओं और नाम शोहरत की हसरत इस देश की जनता की खून पसीने की कमाई से होता है, जो दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। एक एक कर विस्तार से चर्चा करते हैं। पहले जिस ग़ज़ल की बात की है, उसे पढ़ते हैं-
हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले।
देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।
ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।
काश हालात से होते आगाह
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले ।
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।
तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।
मैं तो आइना हूं बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।
Political satire : चलिए थोड़ा ध्यान से समझते हैं ये सभी राजनेता हमको क्या ख़्वाब दिखला रहे हैं और क्या क्या एहसान जतला रहे हैं। आपको पेट भरने को दो वक़्त रोटी खिलाने की बात करते उनको शर्म से डूब मरना चाहिए। जब बड़ी बड़ी भव्य इमारतें, सड़कें, आधुनिक साधन और बेहद शाही ढंग से जीने को उनको मनचाहे ढंग से मिलता है। जनता की सेवा की आड़ में प्रतिनिधि बनकर। जनता देश की मालिक है, देश का खज़ाना उसी का है, जनप्रतिनिधि बनाया जाता है, समान वितरण करने को बड़े छोटे, अमीर गरीब का अंतर मिटाने को, न कि अमीर को और अमीर और गरीब को और गरीब बनाने की नीतियों को लागू करने को। खुद अपने लिए इतना अधिक उपयोग करना जिस से जनता को कुछ भी मिलने को नहीं बचे इसे लूट नहीं देश के साथ छल और अमानत में ख़यानत कहते हैं। सेवक को वेतन सुविधा मालिक से हज़ार लाख गुणा भला कैसे मिल सकता है। आपको कुछ सौ या कुछ हज़ार जीवन यापन करने को देना कोई उपकार नहीं लोकतांत्रिक समाजिक न्याय और समानता का कर्तव्य निभाना होता है और वो भी जनता से ही कितनी तरह से मिले करों आदि से न कि किसी दल या नेता की तिजोरी से। यकीन नहीं आए तो सभी राजनेताओं की नकद धनराशि, जायदाद, बंगले, गाड़ियां कितनी सम्पत्तियां बढ़ती सामने हैं, छिपी हुई की बात को छोड़ कर भी। अजब धंधा है, जिसे जनसेवा कहते हैं, जिसमें राजाओं सा जीवन आनंद पूर्वक बिताते हैं। फिर भी तिजोरी खाली नहीं होती और भी ठसाठस भरती जाती है।
Politics of India : जनता की सेवा करने का भी ढिंढोरा पीटतें हैं
Politics of India : जनता को कभी छोटा सा घर बनाने को जगह या निर्माण को सामान भी मिलता है, तो उसका अधिकार भी आदर पूर्वक नहीं बल्कि ढिंढोरा पीटते हैं, कितने गरीबों की क्या सहायता की। जनता चुनाव में माई बाप लगती है, उससे भीख मांगते हैं, वोट की वादा करते हैं। देश की जनता की समस्याओं का समाधान करने का। कभी ईमानदारी से वादा निभाया गया होता तो आधुनिक सचिवालय, संसद भवन से पहले देश के हर नागरिक को रहने को घर, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाते। बुनियादी ज़रूरतें जनता को नहीं मिलती, तो उस आज़ादी का कोई महत्व नहीं रह जाता है, जिसमें शोषण, अन्याय और बेबसी जनता का नसीब है। देश को गुलामी से मुक्त करवाने को आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों का ये सपना तो कभी नहीं था। साधु का भेष धारण कर लुटेरे होते थे। कहानियों की बात क्या आज की कड़वी सच्चाई नहीं है। संविधान ने जनता को सभी अधिकार देने की बात कही है, मगर सरकारों ने नागरिक को उनके हक नहीं, बल्कि खैरात देने की बात कह कर लोकतंत्र का उपहास किया है। अभी बहुत कुछ बाक़ी है, कहने समझने को, लेकिन विराम देने से पहले इक अपनी ग़ज़ल और पेश करता हूं। टीवी चैनल पर विज्ञापन देकर शोर मचा रहे हैं कि हमने कितना दिया, कितना आपको मिलेगा, ये कितना बड़ा धोखा है, सेवक मालिक को खैरात बांटने की चर्चा कर क्या साबित करना चाहता है। Poltical News India
Politician of india : बेकार सरकार, लाचार जनता
सरकार है बेकार है लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।
फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है।
रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।
जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।
इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।
हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है।
ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है ।
है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।
अपना नहीं था, कौन था देखा जिसे
तनहा यहां अब कौन किसका यार है।
डॉ. लोक सेतिया
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