आज कोई मुझे यह बताए कि हल्दीघाटी कहां है
जहां वीरों का रक्त गिरा, वो रक्त से सनी माटी कहां है।
जिसकी गौरव गाथा इतिहास के अमर पन्नों पर अंकित है,
मगर यहां की देख दुर्दशा सब मन ही मन आशंकित हैं।
जहां हुआ था युद्ध वो पहाड़ी दर्रा झाड़ीयों से अटा है,
यहां के शौर्य स्थलों की भूल भूलैया में, पर्यटक भी बंटा है।
हल्दीघाटी के बारे में जानने के लिए वेबसाइट विजिट करें www.haldighati.com
हल्दीघाटी का नाम तो सब ने सुना हैं, मगर सच में जो हल्दीघाटी है, वो बहुत कम लोगों ने देखी है। कहते हैं मुगलों की सेना खमनोर के मैदानी इलाके से गोगुंदा चावण्ड की ओर बढ़ रही थी। खमनोर से बलिचा की ओर दो दुर्गम पहाड़ीयों के बीच घाटी जिसकी मिट्टी हल्दी रंग की होने से इसे हल्दीघाटी कहते थे। इन घाटी में पहाडियों से आने वाले बरसाती पानी के कारण बीच में एक से डेढ किमी लम्बा और संकडा दर्रा था, जिसमें से सिर्फ एक घुड़सवार ही चल सकता था, दो घुडसवार भी एक साथ क्रॉस नहीं हो सकते थे।
महाराणा राणा प्रताप की सीमित भील आदिवासियों की सेना योजना के अनुसार तीर कमान गोफन व भाला लेकर इन पहाडियों में छिपी हुई थी। इस संकड़े दर्रे में ज्यों ज्यों मुगल सेना प्रवेश करती ऊपर से भील सैनिक पत्थरों व तीरों से उन पर वार कर रहे थे। बड़ी संख्या में मुगल सैनिक इस दर्रे में मारे गये। मुगलों की विशाल सेना के आगे राणा प्रताप की बहुत कम सेना होने के बावजूद मुग़ल सेना इस दर्रे से घाटी को पार नहीं कर सकी और वापस लौटने लगी, वापस लौट रही सेना पर पीछे से महाराणा की सेना वार करती रही और शाही बाग के आसपास के मैदानी इलाके में दोनों सेनाएं आमने सामने हो गई। यद्यपि विशाल मुग़ल सेना के सामने कम संख्या में होने के बावजूद प्रतापी सेना भारी पड रही थी। मगर मुग़ल सेना ने सिर्फ महाराणा प्रताप को ही लक्ष्य बनाकर वार किये। जिससे महाराणा प्रताप बुरी तरह घायल हो गए, इस परिस्थिति में परम वीर झाला मान जो चेहरे में भी महाराणा से मिलते जुलते थे। उन्होंने अजेय मेवाड़ के लिए महाराणा का जीवन मूल्यवान समझकर महाराणा का मुकुट स्वयं पहन लिया और राणा प्रताप को बड़े तरीके से युद्ध क्षेत्र से बाहर निकाल लिया। महाराणा प्रताप चेतक को लेकर वहां से निकले और झाला मानसिंह… मैं प्रताप. मैं प्रताप का उद्घोष करते हुए एक पहाड़ी की तरफ दौड़ गए मुगलों की सेना झाला मानसिंह के पीछे लग गई और वो वीरगति को प्राप्त हो गए। इधर महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक भी बुरी तरह घायल हो चुका था, मगर महाराणा प्रताप को लेकर वह हल्दीघाटी से आगे निकला जहां एक पानी का बहुत बड़ा नाला कूद कर पार कर गया और घायल अवस्था में भी तीन चार किलोमीटर चलने के बाद आखिर में घायल चेतक एक ही स्थान पर गिर गया और कुछ समय के बाद वीरगति को प्राप्त हुआ।
इस युद्ध में बडी संख्या में सैनिक हल्दीघाटी के दर्रे के भीतर और शाही बाग के मैदान में मारे गए थे। वीरता पूर्ण लड़े गए युद्ध में बड़ी संख्या में मुगलों के सैनिक मारे गए मगर अनिर्णय की स्थिति में यह युद्ध समाप्त हो गया। 18 जून 1576 की भीषण गर्मी में स्वयं की चिंता न करते स्वाभिमान की रक्षा में शहीद सभी देशभक्तों का खून इस मिट्टी में मिल गया। उसी दिन एक बरसात हुई और सारे मृत सैनिकों के शरीर का खून पानी में मिल गया पानी बहता बहता खमनोर के पास स्थित एक तलाई में इक_ा हुआ तो पानी खून की तरह लाल हो गया। इसी तलाई को रक्त तलाई के नाम से जाना जाता है। आज हम जिस हल्दीघाटी नामक शौर्य स्थल की बात करते हैं, जिस हल्दीघाटी को ढूंढते हुए देश ही नहीं वरन् संपूर्ण विश्व से पर्यटन आते हैं, मगर वास्तविक हल्दीघाटी को देखे बगैर ही लौट जाते हैं।
जिस हल्दीघाटी के में वीर सैनिकों का खून बहा, जिस स्थान पर युद्ध लड़ा गया, उस पहाड़ी दर्रे को कोई नहीं देखता तक नहीं है। वह पहाड़ी दर्रा आज कंटीली झाडिय़ों से अटा पड़ा है, कोई भूल से भी अगर उस तरफ से निकले तो जंगली जानवरों का खतरा बना हुआ है। पर्यटक पास की एक पहाड़ी से निकले सडक़ मार्ग के किनारों पर हल्दी रंग की मिट्टी को खोदकर ले जाते हैं और उसे ही हल्दीघाटी समझ कर लौट जाते है, मगर जिस हल्दीघाटी की हम बात करते हैं जिस हल्दीघाटी को स्वाभिमान के युद्ध स्थल के रूप में जाना जाता है, उस शौर्य स्थल की सरकार व आम जनता द्वारा भी अनदेखी की जा रही है।
होना यह चाहिए कि यह पहाड़ी दर्रा दोनों तरफ से लोहे की जालियों से सुरक्षित किया जाए। इसमें आने जाने के लिए माकूल व्यवस्था हो जिससे यात्री पैदल पैदल इसे देख सकें। लगभग डेढ़ किलोमीटर का यह पहाड़ी दर्रा बड़ा ही मनमोहक है, इसके दोनों तरफ व्यवस्थित गेट लगाए जाए, जिस पर सुरक्षा प्रहरी हो। संरक्षण व अनदेखी के कारण यह स्थल आज कटीली झाडिय़ों के बीच में असामाजिक तत्वों का अड्डा बना हुआ है। बड़ी संख्या में शराब को बोतलें यहां पड़ी हुई है। राजसमन्द के पर्यटन विकास की दिशा में हल्दीघाटी बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
यहां की बजाय हल्दीघाटी स्मारक भी 3 किलोमीटर दूर बलीचा में चेतक समाधि के सामने बनाया गया है। राष्ट्रीय स्मारक के रूप में शिलान्यास व उदघाटन होने बावजूद विडंबना है कि इसे भी अभी तक राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा तक नहीं मिल पाया है। महाराणा प्रताप स्मारक राष्ट्रीय स्मारक घोषित नहीं होने से प्रताप भक्तों में अंदर ही अंदर आक्रोश पनप रहा है।
देशप्रेम के खातिर अपने जीवन का हवन करने वाले उन सपूतों को जयवद्र्धन टीम की ओर से शत शत नमन।