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कोरोना ने सिर्फ लंग्स कुतरे और इंसान ने आपसी रिश्ते

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मधुप्रकाश लड्ढा, राजसमन्द 9414174858

यह ख़ौफ़नाक मंजर प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा है या राष्ट्रों की विस्तारवादी नीतियों का परिणाम, यह तो नहीं मालूम लेकिन जो हालात पैदा हुए हैं उसमें मानवीय रिश्ते हो या सामाजिक रिश्ते सभी तार तार जरूर हुए हैं। कोविड़-19 के कहर ने रिश्तों की मर्यादा को बीच सड़क पर नंगा जरूर कर दिया है। कौन अपना है और कौन पराया ? यह भेद खत्म होकर सब पराए हैं… इसका भाव ज्यादा इंगित होता है। हो भी क्यों नहीं क्योंकि स्वार्थ तो इंसान का प्रबल मानवीय गुण है। कोरोना ने तो मानव के सिर्फ लंग्स कुतरे हैं लेकिन इंसानों ने तो आपसी रिश्तों को ही कुतर कर रख दिया है। अपनों के शवों को शमशान या बीच सड़क पर छोड़, घर चले जाना भाव शून्यता या ख़ौफ़ की पराकाष्ठा है। ख़ौफ़ तो समझ में आता है लेकिन भाव शून्यता समझ से बाहर है।

कोरोना से पहले भी ऐसे कई वाकिये हुए हैं जिनको सुनकर मन में क्षोभ के भाव उत्पन्न हुए हैं। एक 60 साल का आदमी 8 साल की बच्ची से बलात कर्म कर रहा है तो 17 साल का बच्चा 70 साल की बुजुर्ग से। यह मानव संस्कृति की मर्यादा नहीं है। मनुष्य के अमर्यादित आचरण को प्रकृति ही मर्यादित कर सकती है। चाहे वो किसी भी रूप में क्यों न प्रकट हो!!

मृत्यु अटल सत्य है लेकिन अकाल मृत्यु ने हरएक को अंदर तक झकझोर दिया है। कोरोना ने न उम्र देखी न रसूख, न ओहदा देखा न जात, जो भी रास्ते में मिला उसे अपने में समेटता चला गया। मन दुखी है ऐसे ऐसे नाम सुनकर, की कानों पर विश्वास ही नहीं होता। पिता अपने जवान पुत्र के लिए भाग रहा है तो कहीं नाबालिग पुत्र अपने पिता के लिए ऑक्सिजन ढूंढ रहा है। उपचार करवाना चाहते हैं पर साथ जाना नहीं चाहते। मां, बहिन, भाई, भाभी सारे रिश्ते एक दूसरे के लिए चिंतित जरूर है, परन्तु ख़ौफ़ के साये में।

लेकिन काल की गति जिस दहलीज पर जाकर मौत मांगती है उसका परिवार उजड़ जाता है। लेकर भी उसे ही जाती है जो परिवार की धुरी होता है। प्रकृति और ईश्वर की लीला इतनी निष्ठुर तो नहीं हो सकती। फिर यह सब क्यों हो रहा है। शायद मनुष्य हैं इसलिए देख समझ नहीं पा रहे हैं, पशु होते तो प्रकृति की मर्जी को समझ गए होते।

जिस ऑक्सीजन के लिए आम आदमी आज मारा-मारा फिर रहा है, बरसों से उस ऑक्सिजन को हम ही तो खत्म करते आये हैं। मुफ्त में मिलने वाली वस्तु की कीमत तो हमने कभी जानी ही नहीं। पहले पूरी उम्र निकाल देते थे लेकिन कभी वेंटिलेटर और ऑक्सीजन कीट की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। आज जिस ऑक्सीजन के लिए हम दर दर की ठोकरे खा रहे हैं न, तो स्वयम से पूछो की क्या कभी एक वृक्ष भी लगाया है ? नहीं न। जन्म के साथ मृत्यु की तरह ही, विकास आता है तो विनाश भी साथ ही लाता है।

हर बार प्रकृति हमे किसी न किसी रूप में इशारा करती रही है। लेकिन हमने कभी न जानने की कोशिश की, न समझने की। हमने जंगल उजाड़ दिये, पहाड़ काट दिये, नदियों के रास्ते बदल दिए, प्रकृति को विध्वंस करने का जिम्मा तो सिर्फ मनुष्य ने ही ले रखा है न ! तो इसका दंश भी तो मनुष्य को ही जेलना पड़ेगा न!

अब भी समय है यह मान लीजिए कि प्राण वायु की कीमत से ज्यादा इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। तो क्यों न हम लौट चले उन परिंदों के पास जो घने वन में चहचहाते हैं! क्यों न लौट चले उन झरनों के पास जो बेरोकटोक बारह महीनों बहते हैं! क्यों न लौट चले उस प्रकृति के पास जिसकी बाहों में जीवन स्वास की बहार छिपी है। यह वही स्थान है जहां न रोना होगा, न कोरोना।

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