Science or Dharma : सनातन धर्म की परिभाषा बहुत प्राचीन है और इसका अस्तित्व भी सृष्टि के प्रारंभ से है। कहा जा सकता है कि जो वैचारिक सांस्कृतिक अवधारणाएं शाश्वत हैं, चिर स्थायी हैं, जिनका न आदि और न ही अंत है, वे सनातन धर्म के नाम से समग्रत: अभिज्ञापित की जा सकती हैं। श्री नारायण की आज्ञा से उन धारणाओं को ईश्वरीय तत्व के रूप में ब्रह्मा ने प्रकटाया और तब वे मानव और उसके द्वारा ईश्वरीय आज्ञा के अनुरूप विविध युगों में जीवन जगत् के कल्याण के लिए विभिन्न नियमों और आचार संहिता के रूप में संसार के श्रेष्ठ रूप को रचती रहीं। विज्ञान में जिस अणु तत्व की स्थिति का उल्लेख आता है, वह भी शाश्वत है, स्थायी है और केवल रूप परिवर्तन से जगत् के सतत् विकास का कारण बनता है।
यह कहा जाना उचित होगा कि विज्ञान में शरीर एक पदार्थ है। यह पदार्थ शरीर का धर्म है। इसकी प्रकृति नाशवान है। जब जब मनुष्य पदार्थ की मूल प्रकृति को चुनौती देता है, तो उस पदार्थ के समस्त धर्मों के नाश की संभावना प्रबल हो जाती है। धर्म की मूल प्रकृति से छेड़छाड़ पर समस्त प्रकार के सद्धर्मों के अस्तित्व पर संकट आ जाता है। गत शताब्दी के नवें दशक से पूर्व के वर्षों में धर्म की मूल प्रकृति से छेड़छाड़ का अवसर बना था। जब रामलीला को अपने ही घर आंगन से निष्कासित होने के संकट का कष्ट समस्त दिव्य प्रज्ञावान भारतीय मनीषा को झेलना पड़ा था। तब भारतीय संस्कृति के उन्नायकों, भक्तों, सेवकों और आमजन ने अपनी संस्कृति में व्याप्त “सनातन आत्मा के अस्तित्व’ का बीड़ा उठाया, जिससे व्याप्त सामूहिक ऊर्जा ने 92वें के वर्ष में एक सैलाब को जन्म दिया। शाश्वत और चिर स्थायी विज्ञान सम्मत सनातन धर्म से एकता के उस सैलाब ने समस्त कुल दोष जन्य प्रयासों को जवाब दिया। उसी के परिणाम स्वरूप रामलला के विशाल प्रकल्प मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के क्षणों से रुबरू होने का अवसर हम पा रहे हैं। वैज्ञानिक सोच सम्पन्न सनातन धर्म के अनुसरण का यही तो भव्य दृश्य है।
कहां भी गया है न-
कुल क्षयेप्रणश्यंति, कुल धर्मा सनातन:
धर्मे नष्टे कुलं कत्स्नं, धर्मोs भिभवच्युत्
(जब कुल में दोष लगता है तो वहां समस्त प्रकार के धर्मों का नाश हो जाता है। केवल सनातन आत्मा का अस्तित्व रह जाता है।)
Science or Dharma : साइंस ऑफ लाइफ
सनातन धर्म के अवयवों की चर्चा करते हुए शास्त्रों में बताया गया कि जीवन जीने की समग्र चेतना और प्रवृत्ति जिसकी कोई भौगोलिक सीमा नहीं, जब किसी एक अध्यात्म सम्मत नियम और आचार संहिता में भाव के धरातल पर हमें बांधती है, तो हमें अपने महान लक्ष्यों की प्राप्ति से कोई नहीं रोक सकता। साइंस ऑफ लाइफ भी “चेतना’ की महत्ता बतलाती है। यह चेतना व्यक्ति और जन जन को मानसिक व शारीरिक संतुलन से एक भाव अनुशासन में बांधने का काम करती है। यही योग है। राम लला मन्दिर के निर्माण की प्रक्रिया में अंत:प्रेरणा या चेतना से जो स्वानुशासित धर्म का हमें संबल मिला, वही सनातन धर्म था, जिसने हमें एक भाव सूत्र में बांधा। वह समय था, जब सम्पूर्ण राष्ट्र में एक ही आह्वान गूंजता था,”राम लला हम आएंगें, मन्दिर वहीं बनायेंगे। “सनातन चेतना की इसी साइन्स ऑफ लाइफ ने हमें आज यह शुभ दिन दिखाया है।
क्या है सनातन Dharma
सनातन धर्म को परिभाषित करते हुए कहा भी गया कि मूल रूप से प्रकृति व योग्यता सहित क्रमबद्ध जीवनचर्या से मानवहित में श्रेष्ठ कार्य करना ही सनातन धर्म है। यह वस्तुत: विज्ञान सम्मत दृष्टिकोण (Scientific attitude) है, जिसने हमें शीर्ष नेतृत्व, कुशल सिपहसालारों की व्यूह रचना और निष्ठावान जन सैनिकों के प्रयासों से सफलता दी। वस्तु, व्यक्ति, प्रकृति के व्यवहार का संज्ञान प्राप्त करना, इस ज्ञान को सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के कल्याण हेतु क्रियान्वित करना और स्थिति परिस्थिति का सम्यक् अवलोकन, विश्लेषण कर परित्राणाय साधुनां, विनाशाय च दुष्कताम्, धर्म संस्थापनार्थाय रामलीला की पुनर्प्रतिष्ठा विज्ञान सम्मत शाश्वत सनातन सोच के वश की बात ही हो सकती है।
Science की प्रकृति क्या है
प्रश्न उठता है, विज्ञान की प्रकृति क्या है? जहां नियमों, सिद्धांतों, सूत्रों आदि में संदेह न हो,जो सत्य पर आधारित हो, तथ्यों का विश्लेषण करता हो, परिकल्पना करता हो, तटस्थ हो, वस्तुनिष्ठ हो, समस्या का स्पष्ट हल करता हो और एक्टिविटी बेस्ड हो, वही विज्ञान है। समग्रता में शाश्वत या सनातन धर्म की भी यही प्रकृति है। इन कसौटियों पर यदि रामलला मंदिर की भव्य कल्पना को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया को देखा जाए, तो यह सनातनी एप्रोच भी है और वैज्ञानिक कोपरनिकस की Heliocentric theory का सार भी। हमारा यह समस्त सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सनातन धर्म और विज्ञान की संयुक्त एप्रोच का भव्य व सुंदर उदाहरण है। बौद्धिक, नैतिक, व्यावहारिक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक एवं सौन्दर्यात्मक मूल्य जो शाश्वत सनातन धर्म के तत्व हैं, कोपरनिकस की थ्योरी में भी हैं। अंतर बस इतना सा कि जिस बात को कोपरनिकस ने 16वीं शताब्दी में कहा, वह सनातन सोच ने सृष्टि के प्रारंभ में ही कह दिया। समय, देश, काल से ऊपर ऐसा चिरंतन जीवन दर्शन और क्रम को आज के युग में पुनर्भाषित करने की आवश्यकता है। यही हमारी भारतीय सांस्कृतिक मनीषा की जीवनदायिनी शक्ति होगा। इति!
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March-2024डा. राकेश तैलंग
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