गत शताब्दी का नवम् दशक मेरे जैसे उम्र के तीसरे दशक के युवाओं के जुनून और कुछ नया देखने, सुनने और अनुभव करने की घटनाओं में दिलचस्पी रखने का वर्ष था । अखबार अटे पड़े होते थे, अयोध्या में रामलला मन्दिर के रोमांचक समाचारों से। देश कभी निर्माण तो कभी भग्न पर निर्माण के आह्वान के स्वर आलाप रहा था। यह संघर्ष मेरे लिए इन सबके बीच भारतीय संस्कृति के सनातन तत्वों पर चर्चा का समय हुआ करता था।
तब के संघर्ष और संभावित समाधान के उस दौर में मुझे मेरी मां द्वारा सुनाई पंचतंत्र की एक बोध कथा याद आती थी। वह कहानी मेरे ज़ेहन में गहरे कहीं समा गई थी और शायद इसीलिए उस कथ्य को मैंने अपनी मौलिक कविता के शिल्प में पिरो दिया था।
उस कहानी में एक विशाल नन्दन वन हुआ करता था। विशाल आदिम संस्कृति और सभ्यता की यात्रा का साक्षी एक वट वृक्ष होता था। एक बूढ़ा तोता जो निर्लिप्त, निर्द्वद्व और निर्विकार भाव और समावेशी समदृष्टि से मानों भारतीय शाश्वत, चिरस्थायी और आदि व अंत से निरपेक्ष सनातन संस्कार और संस्कृति का कोई दैवी प्रतिनिधि होता था । वृक्ष की फुनगियों तक निवास करती पंछियों की भोली प्रजा के लिए वह सनातन जीवनशैली और अनुभवों को साझा करने व साथ कहता और प्रजा व राजा के मध्य चिरंतन धर्म और सांस्कृतिक संस्कारों का बीज वपन करता रहता। अल सुबह जब पंछी आसमान में उड़ते, तो उन्हें विश्वास होता पीछे कोई है, जो अलग अलग पारिवारिक परंपराओं से आकर वृक्ष की पनाह लिए विविध रूपों में पंछियों की रक्षा करने वाला है ‘यंत्र विश्वं भवति एक नीडम्’ ।
विचारों की श्रृंखला टूटी तो लगा यह तो मेरे भारत राष्ट्र की चिरंतन संस्कृति और वैदिक परंपरा के उषा काल की सी मानों कोई कहानी है। मेरी भावना ने पंचतंत्र की कथा का मानो, एक अध्याय पूरा कर लिया और वह भाव कविता बन जैसे प्रवाहित होने लगा-
कल रात मां सपने में आयी थी
मैं चुप था, अवाक् भी थपथपायाए दुलराया एक कहानी सुनायी थी आबाद जंगल के बीच बूढ़े बरगद की छांह
किलकारियां गूंजती खेलता था गांव।
अपने दुःख अपने ही सुख थे
बाहर का कोई नहीं
सब आत्मोन्मुख थे
जानते थे
इस छांह की प्रकृति दिन चढ़ने के साथ खुद से खुद बढ़ जाती उसकी आकृति नेतृत्व की गरिमा कोटर से मुस्कुराती थी उम्र की ललाट रेखा पंछियों को पाठ पढ़ाती थी
जो भी था, अपनी जमीन अपना सपना था
किसी की दरकार नहीं
न किसी की अपने लिए
राह तकना था।
ओह ! यह तो हमारे देश की सनातन संस्कृति और जीवन शैली की कहानी बनती जा रही है। बूढ़े तोते के नेतृत्व में सर्व धर्म समभावी सामाजिक जीवन दौड़ रहा था। अब वन्य जीवन का मध्य काल तपने लगा था। वैदेशिक पंछियों और मनुष्यों ने यहां की शान्त तपोभूमि पर मानो आक्रमण कर दिया था। भारतीय इतिहास में महाभारत और रामायण काल में बाहरी शक्तियों का यह सांस्कृतिक और भौगोलिक आक्रमण अपने ओज के साथ शुरू हो गया था । अलबत्ता वहां श्री राम और श्रीकृष्ण थे प्रतिकार और धर्म संस्थापनार्थाय । सोचिए, इस कथा में कौन था ?
एक दिन दोपहर का समय। पंछी दाना पानी की खोज में बाहर गये थे। कोटर में बूढ़ा तोता और पेड़ पर अबोले पंछी । देखा – एक छोटी सी लता बरगद के पास उग आयी थी। बूढ़ा तोता चिन्तित हो उठा । वृक्ष की शांत जिन्दगी में कोई तूफान आने वाला है। त्राहिमाम ! तोता चिल्ला उठा। मेरी कविता आगे बढ़ चली-
मगर कहो
किसी की शान्ति किसी को
कहां भाती है
कठोर नियति समय की रेख
जमीन पे लिख ही जाती है
कोटर से झांकते
बूढ़े तोते ने कहा देखते हो
यह कोई नयी बेल
यहां उग आती है
पंछी हंस पड़े
भला इस बेल से डर ! तुम्हारी बुद्धि सठियायी है वे कह पड़े
कुछ नहीं होने का
हम यहां के किंग हैं
इस जंगल के बस हम
इकलौते सिंह हैं
यह अति विश्वास! प्रजा की इसी निश्चिंतता ने शान्ति से संघर्ष की राह अनजाने ही चुन ली। संस्कृति, रीति रिवाज, भाषाए जीवन शैली, स्थापत्य, वास्तु कला और सनातन धर्म के केन्द्रों पर
बाह्य आक्रमणों के जाल फैंके जाने लगे।
लता फलती रही
बूढ़ी आंखों की नींद
उड़ती रही
बेफिक्र पंछियों की बेपरवाही
बढ़ती रही
लता फुनगियों तक चढ़ती रही
संस्कृतियों के उत्थान और पतन की यह कहानी रामलला के
अयोध्या मन्दिर की कहानी तो नहीं ? मैं सोचता था और मां की
हिदायतें याद करता था-
मां ने पूछा, और सुनोगे
वादा करो, इसे गुनोगे
यह कहानी आज की
कुछ अध कटे पंख की
कुछ दूर देस से उड़ आए
परवाज़ की है।
फिर वही हुआ जो होना था। शिकारी आया, बढ़ चुकी लता बेल पर चढ़ जाल डाला, पंछी जाल में फड़फड़ाने लगे और अब अपने ‘ भाग्य विधाता’ को गुहार लगाने लगा।
ये पल थे अपनी गलतियों के एहसास के, सांस्कृतिक
पुरुश्चरण के संकल्पकर्ताओं के संस्कृति रक्षण के ।
ऐसा ही था वह मंजर
स्वयंभुव मुकद्दर का सिकन्दर
हाथ में जाल
दिल में आकांक्षाओं के समुंदर
शिकारी था वह
लता की राह
फुनगियों तक धावा किया
बूढ़ी आंख रोती थी पंख फड़फड़ाते थे नींद से जाग बेफिक्र भूधर
अब हाहाकार मचाते थे।
विभव, पराभव और फिर विभव – यह सम्पूर्ण गल्प अब देश में भव्य दीपावली और समारोहों के अवसर में बदल गया है,
लेकिन मेरी मां ने कविता में एक सीख हम सब को दी थी। हमें उस सीख को याद रखना होगा-
एक सीख जो मां हमें
दे पायी थी
ये बात और थी
सो गये थे हम समय से पहले आंख पथरायी थी
कहानी में बूढ़े तोते ने
बचाया था
अबोले, आत्म हंत भोले पंछियों को
जाल से मुक्त कराया था
तब क्या करोगे
जो कभी चील बाजों से
घिर चिल्लाओगे
घर से बेघर कर दिए जाकर सड़कों पर खड़े हो
धुआंधार नारे लगाओगे।
प्रस्तोता : डॉ. राकेश तैलंग शिक्षाविद् व वरिष्ठ साहित्यकार श्री द्वारकाधीश मंदिर मार्ग, राजसमंद मो. 9460252308