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हल्दीघाटी युद्ध पर भ्रम : शोध में प्रताप की विजयी, शिलालेखों पर अंकित नहीं

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हल्दीघाटी युद्ध की आज 445वीं बरसी
हल्दीघाटी युद्ध के 445 साल बाद भले ही इतिहासकारों के शोध में महाराणा प्रताप विजयी हो गए है, मगर रणभूमि रक्ततलाई में लगे शिलालेखों में आज भी प्रताप की विजय सुनिश्चित नहीं हो पाई है। रक्ततलाई में लगा शिलालेख प्रताप और अकबर की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध का वर्णन कर रहा है मगर प्रताप को हल्दीघाटी का स्पष्ट विजेता नहीं बता रहा है।

यहां लगे शिलालेख में पहले किसी एक खेमे के पीछे हटने की इबारत दर्ज थी, मगर बाद में मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा अंकित कर दिया गया। इसी शिलालेख में हल्दीघाटी युद्ध 21 जून 1576 में होना बताया है, जबकि रक्ततलाई में ही पर्यटन विभाग की ओर से लगे दूसरे शिलालेख में युद्धतिथि 18 जून 1576 बताई है। इतिहासकारों में पहले युद्धतिथि पर भी मतांतर था, मगर बाद में मतैक होकर 18 जून 1576 माना। प्रताप को अपने शोध और तथ्यों के आधार पर हल्दीघाटी युद्ध में जीता हुआ शासक प्रमाणित करने का दावा करने वाले इतिहासकार डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा का कहना है कि रणभूमि में पुराने शिलालेखों को हटाकर राणा प्रताप की जीत के शिलालेख लगने चाहिए, ताकि देशभर से आने वाले पर्यटक मेवाड़ के वीर सपूत और उनकी सेना को इतिहास में आक्रांता अकबर के सामने विजेता के रूप में पढ़े और जाने।


हल्दीघाटी का युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ई. को खमनोर एवं बलीचा गांव के मध्य तंग पहाड़ी दर्रे से आरम्भ होकर खमनोर गांव के किनारे बनास नदी के सहारे मोलेला तक चला था। युद्ध में निर्णायक विजय किसी को भी हासिल नहीं हो सकी थी, लेकिन जिस उददेश्य को लेकर ये युद्ध लड़ा गया था वो पूरा नही हो सका। इस युद्ध मे महाराणा प्रताप के सहयोगी राणा पूंजा का सहयोग रहा। इसी युद्ध में महाराणा प्रताप के सहयोगी झाला मान, हाकिम खान, ग्वालियर नरेश राम शाह तंवर सहित देश भक्त कई सैनिक देशहित बलिदान हुए। उनका प्रसिद्ध घोड़ा चेतक भी मारा गया था। अब यहां मुख्य रूप से देखने योग्य युद्ध स्थल रक्त तलाई, शाहीबाग, हल्दीघाटी दर्रा, प्रताप गुफा, चेतक समाधी एवं महाराणा प्रताप स्मारक देखने योग्य है। युद्धभूमि रक्त तलाई में शहीदों की स्मृति में बनी हुई है। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित सभी स्थल नि:शुल्क दर्शनीय है।

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