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पुरुष सहनशक्ति…. क्या आपको पता है, देखिए

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संवेदनाएं -भावनाएं उसमें भी है,और दु:ख उसे भी होता हैं ।
वो पलकों मे ही छिपा लेता है आंसू सारे, वो मन ही मन रोता हैं ।
कह तो दिया जाता है, बड़ी आसानी से “मर्द को दर्द नहीं होता।”
लेकिन यकीनन आहत वह भी है, और दर्द उसे भी होता है।

क्यों बचपन मे गुड्डे- गुड़ियाँ छीन उसके हाथों मे बल्ला थमा दिया जाता है।
“लड़कियों जैसे रोते नही” कह कर क्यों उसे इतना कठोर- सख्त बना दिया जाता हैं ।
मत शर्माना, मत रोना और किसी से डर मत जाना,
हारना मत, झूकना मत कह कह कर, संवेदनहीनता का पाठ उसे क्यों पढ़ा दिया जाता हैं ।

सिर्फ तुम ही नहीं खो देती सपने अपने, वह भी अपनों को खो देता है।
घर पर खाने में नखरे करने वाला लड़का, हॉस्टल -पीजी में भूखे पेट भी सो लेता है।
मर्द बनो, तुम रो नहीं सकते यही सिखाया है सबने अब तक।
पर अपने टूटते सपने और असफलताओं को औढ़ वह भी रातों को रो लेता है।

पिता की लाठी बनना है, बहन की विदाई भी उसी से ।
भाई का ख्याल रखना है, और मां की दवाई भी उसी से।
राशन हो या बीवी की ख्वाहिशें, शादी हो या सैर- सपाटा,
सारी जिम्मेदारी तो उसके ही सर है,और बच्चों की पढ़ाई उसी से।

तुम छत- दीवारों को घर बनाती हो तो, घर की नीवं वही तो बन जाता है।
माना बनाती हो तुम दिन-रात भोजन, तो रोटी वह भी तो कमाता है।
हर रोक -टोक को तुम सख़्ती समझ लेती हो, कभी कभी वो दुनिया से तुम्हे बचाता हैं।
तुम्हारी खुशी के ख़ातिर खुद को बदलते – बदलते मर्द खुद कितना बदल जाता हैं।

हाँ ! माना छोड़ आई हो तुम घर अपना, तो क्यों घर – परिवार उसका भी छूटता है।
माना जीवन बदला है तुम्हारा, तो नाता उसका भी नई जिम्मेदारियों से जुड़ता है।
लाद देती हो अपेक्षाओं की दुनिया उस पर, समझ नहीं पाती तुम उसके भारी मन को,
कि 2BHK के इस नये फ्लैट में बिन मां – बाप के दम उसका भी घुटता है।

माना कोई वहशी है यहां, हाँ माना कोई पापी- दरिंदा है।
कुछ दुराचारियों के कारण सारा पुरुष समाज शर्मिंदा है।
फरेब इनके साथ भी होता हैं, इन्हें भी तो छला जाता हैं।
लेकिन इनमें सब कुछ चुपचाप सहने की आदत एक चुनिंदा है।

तुम्हारी अनगिनत अपेक्षाओं का बोझ वह, सारे जीवन ढ़ोता चला जाता है।
तुम्हारा हक़, तुम्हारी मंज़िल, तुम्हारे सपनों के पीछे वो अस्तित्व अपना खोता चला जाता हैं ।
कुछ तुम्हारे लिए यार छोड़ते है, कुछ छोड़ते हैं घर- परिवार,
तुम्हें “शक्ति -स्वरूपा” बनाते- बनाते, पुरुष “सहन- शक्ति” का प्रतिक होता चला जाता हैं ।

जब सिर्फ देखी जाती है हर बार अग्नि -परीक्षा ही सिया की ,
तो सीय बिन धीर धरे मेरे पुरुषोत्तम के नयन में नीर क्यों नहीं देखे जाते ।

सिर्फ देखी जाती है विरह पीड़ा राधा की और भक्ति मीरा की,
तो राधा बिन मेरे श्याम मौन और अधीर क्यों नहीं देखे जाते।

और जब भी देखी जाती है पीड़ा सती के सत की और पार्वती के उस कठिन व्रत की,
तो पार्वती के लिए चंद्रशेखर रूप धरे, और सती के लिए वो वीरभद्र से वीर क्यों नहीं देखे जाते ।

जब भी देखी जाती हैं द्रोपदी की वेदना और क्रंदन को,
तो सौ – सौ कौरवों को परास्त करने वाले वो पांडव रणधीर क्यों नही देखे जाते।

अन्नू राठौड़ “रुद्रांजली
कांकरोली, राजसमंद

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