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होली पर्व जा चुका है, चुनाव पर्व चल रहा है। देश के पांच राज्यों में चुनाव हैं। राजस्थान में तीन स्थानों पर उप चुनाव हैं, जिनमें से राजसमंद भी एक है। इधर कोरोना महापर्व मना रहा है। वह पूरी तैयारी के साथ पुन: प्रकट हुआ है। कहते हैं दुश्मन तभी आक्रमण करता है, जब आप गाफिल हो। लोग बेखौफ़ हैं तो कोरोना भी बेकाबू है। यह जानलेवा बीमारी लापरवाही का पूरा लाभ उठा रही है। यह लापरवाही तीन स्तरों पर है। आम लोग, प्रशासन और राजनेता। लोग मास्क नहीं लगाना गर्व की बात समझते हैं। सोशल डिस्टेन्सिंग किस चिडिय़ा का नाम है, यह भूल चुके हैं। धार्मिक स्थलों पर, बाज़ारों में लोगों का मेला सा लगा रहता है। इधर चुनावी रैलियों और सभाओं की बहार आई हुई है। प्रशासन मूक दर्शक बना देख रहा है, राजनेता मुदित हैं, कोरोना कुपित है। कोरोना गाइडलाइन कागजी बनकर रह गई है। यही भारतीय लोकतंत्र के विरोधाभास हैं। तुलसीदास जी ने कहा है, समरथ को नहीं दोष गुसाई। अब समय आ गया है कि भीड़ एकत्रित करने की बजाय चुनाव प्रचार के लिए प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। चुनाव आयोग को भी जागना होगा।
अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को यों परिभाषित किया था। जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन, जबकि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ कहते हैं लोकतन्त्र अपनी महंगी और समय बर्बाद करने वाली खूबियों के साथ सिर्फ भ्रमित करने का एक तरीका भर है, जिससे जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि वह ही शासक है, जबकि वास्तविक सत्ता कुछ गिने- चुने लोगों के हाथ में ही होती है।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की आलोचना में चाहे जितनी सच्चाई हो, यह निर्विवाद है कि लोकतन्त्र लोगों की पहली पसंद है। इसीलिए तो दुनियाभर के लोग इस प्रणाली को लागू करवाने के लिए अपना खून तक बहाने को तैयार रहते हैं। हमारे पड़ोसी देश म्यामार के हालात इसका ज्वलंत उदाहरण है। दरअसल लोकतन्त्र का अर्थ है ऐसी जीवन पद्धति जिसमें स्वतन्त्रता, समता और बंधुता सामाजिक जीवन के मूल सिद्धान्त होते हैं। सबसे बड़ी बात जो नागरिकों को लुभाती है, वह है अभिव्यक्ति की आज़ादी। यद्यपि कई बार लोकतन्त्र में भी असहमति के स्वरों का गला घोंटने के प्रयास दिखाई देते हैं। सत्ता के द्वारा झूठे मुकदमे बनाकर, न्यायपालिका पर दबाव डालकर या अन्य तरीकों से प्रताडऩा देकर लोगों को चुप रहने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। परंतु यह विकासशील लोकतंत्रों में अधिक दिखाई देता है, जहां नागरिक पढ़े- लिखे और जागरूक हैं, वहां सत्ता खुलकर नहीं खेल सकती, चाहे प्रचंड बहुमत हो। भारत में यद्यपि साक्षरता दर कम है, परंतु यहां का वोटर राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व है, यह कई बार सिद्ध हो चुका है। देश की जनता सबकुछ देखती, सुनती, गुनती एवं सहती है और मौका आने पर एक बटन से सारी तस्वीर बदल देती है।
चुनाव लोकतन्त्र तक पहुंचने का मार्ग है। लोकतन्त्र यदि साध्य है, तो चुनाव साधन। गांधीजी कहते थे कि साध्य ही नहीं साधन भी पवित्र होना जरूरी है, परंतु बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि साधनों की पवित्रता उत्तरोत्तर गौण होती जा रही है। चुनाव के दौरान स्टार प्रचारक भी मुद्दों को ताक पर रख विरोधी उम्मीदवार और उसकी पार्टी के नेताओं का चरित्र हनन तक करने को उतारू हो जाते हैं। यह सच है कि सभी ऐसा नहीं करते परंतु जो ऐसा करते हैं, वह गलत है। दूसरों ने क्या किया और क्या नहीं किया के स्थान पर ज़ोर यह बताने पर हो कि हम क्या करेंगे। पहले एक पहेली पूछी जाती थी कि इस रेखा को बिना काटे- छांटे छोटी करके दिखाओ। जवाब नहीं सूझता तो गुरुजी उसके पास ही एक बड़ी रेखा खींच देते। पूर्व की रेखा स्वत: छोटी हो जाती थी। अर्थात किसी को छोटा किए बिना अपने को बड़ा करके दिखाओ। आज विपरीत हो रहा है। पास वाली रेखा को काट कूट कर छोटा किया जा रहा है, ताकि हमारी रेखा बड़ी दिखे। धर्म, जाति, संप्रदाय के आधार पर वोट मांगना भी लोकतंत्र की सेहत के लिए उचित नहीं है। इससे जनता में गलत संदेश जाता है, सामाजिक समरसता पर आंच आती है। यह हमारे संविधान की भावनाओं के अनुकूल नहीं है। यह प्रसन्नता का विषय है कि हमारे राजसमंद के जनप्रतिनिधि सामाजिक समरसता का पूरा ध्यान रख रहे हैं, परंतु राष्ट्रीय परिदृश्य आश्वस्तकारी नहीं है। एक बुराई जो पिछले कुछ वर्षों से घर कर गई है वह है, केश फॉर वोट, ल्कोहोल फॉर पोल, इसके लिए वोटर भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वोटर इस बात को भूल जाता है कि वोट के बदले कुछ लेने पर उसकी आवाज़ कमजोर हो जाएगी। फिर वह जीते हुए प्रत्याशी के सम्मुख पुरजोर शब्दों में अपनी बात नहीं रख सकेगा।
एक सरपंच के पास कुछ लोग आक्रोश की मुद्रा में पहुंचे कि दो वर्ष होने को आए और तुमने हमारे ये- ये काम नहीं किए हैं। बिजली, पानी, सडक़, स्वास्थ्य केन्द्र सभी काम बाकी हैं। सरपंच कुछ देर तो हो-हल्ला सुनता रहा, फिर बोला, जाओ, नहीं करता, क्या कर लोगे? कैसे नहीं करोगे, हमने तुम्हें वोट दिया है। इस पर सरपंच ने कहा, तुमने वोट दिया नहीं है, बल्कि मैंने 500-500 रुपए में तुम्हारा वोट खरीदा है। तुम्हें बोलने का कोई अधिकार नहीं है। यह घटना प्रतीकात्मक है, परंतु वोट के बदले कुछ चाहने वालों के लिए एक सबक है। हमें इस संबंध में तमिलनाडु के एक गांव ओथाविडू से प्रेरणा लेनी चाहिए। यह गांव मदुरई के समीप है, जिसकी तीन पीढिय़ों ने आज़ादी के बाद पहले चुनाव से लेकर अब तक किसी प्रत्याशी को गांव के अंदर प्रचार की इजाजत नहीं दी है, न तो किसी को गांव घर में झंडे, बैनर, पोस्टर आदि लगाने की अनुमति है और न ही वोटों के लिए लेन- देन के लिए कोई जगह। वहां के लोग कहते हैं कि पार्टियों के प्रचार, भाषणों आदि से आपसी मनमुटाव बढ़ता है। उनके लिए गांव की एकता और सौहार्द सबसे बड़ी प्राथमिकता है। इसीलिए जब भी कोई प्रत्याशी प्रचार के लिए आता है, तो वहां के लोग गांव की सीमा पर पहुंच जाते हैं। उसका पारंपरिक तरीके से स्वागत किया जाता है, वहीं ग्रामीण अपनी समस्याएं बताते हैं और उम्मीदवार की बात सुनते हैं। यह परंपरा तमिलनाडु के और भी कई गांवों में है।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोगों का नज़रिया भी स्वस्थ होना आवश्यक है। वोटर को चाहिए कि वह प्रलोभनों से परे रहकर योग्य प्रत्याशी का चुनाव करें। एक ऐसा प्रत्याशी जो जन समस्याओं से जुड़ा हो, जमीन से जुड़ा हो। उम्मीदवार की योग्यता, पृष्ठभूमि तथा जन समस्याओं के प्रति जागरूकता को देखकर ही मतदान का निर्णय करना चाहिए, वरना हम ही कहेंगे कि उसने तो पांच वर्ष तक वापस मुंह ही नहीं दिखाया या ‘गोह रा जाया सब खरदरा ई व्हे’।
प्रत्याशी को चुनना हमारे हाथ में है, यही तो लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। हमें इस ताकत का प्रयोग जरूर करना चाहिए। संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी है, परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है। ईश्वर ने हमें दो आंखें दो कान दिए हैं, परंतु जीभ केवल एक दी है। हम खूब देखें, खूब सुनें लेकिन बोलें कम। अर्थात सोच समझकर बोलें। असहमति का आदर जरूर करें। असहमति का अर्थ शत्रुता नहीं है। लोकतंत्र की यही तो खूबी है। यहां अलग- अलग मत- मतांतर वाले लोग एक साथ रहते हैं। इसी को विविधता में एकता की संज्ञा दी गई है। इस बात को सुनिश्चित करना इस देश के कर्णधारों सहित हम सबका कर्तव्य है कि आपस में मतभेद भले ही हों, किन्तु मनभेद नहीं होने पाए। तभी लोकतंत्र कायम रह सकता है। आदर्श लोकतंत्र वही है, जहां के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहने के साथ-साथ कर्तव्य के प्रति भी सचेत रहें। प्रत्येक नागरिक को देश की एकता और अखंडता के प्रति वचनबद्ध रहना होगा। नागरिक ऐसा कुछ भी नहीं करें, जिससे आपसी भाईचारे, सामाजिक समरसता और इस देश की सदियों पुरानी गंगा- जमुनी संस्कृति पर आंच आए। प्रत्येक नागरिक को स्वयं के हितों के साथ- साथ दूसरों के हितों का भी ध्यान रखना चाहिए। उदाहरण के लिए कोरोना महामारी में लोगों के व्यवहार को देखा जा सकता है। यदि कोई बिना मास्क के निश्चिंत होकर निरुद्देश्य घूमता- फिरता है। भीड़-भाड़ में जाता है तो वह संक्रमित होकर सबसे पहले अपने ही परिवार का अहित करेगा, जिसमें मासूम बच्चे और बुजुर्ग भी रहते हैं। दरअसल कोरोना का फैलाव नाभिकीय विखंडन की तरह है। एक परमाणु जब टूटता है, तो तीन न्युट्रोन निकलते हैं। ये तीन परमाणुओं को तोड़ते हैं, जहां तीन- तीन न्युट्रोन और निकलते हैं। यह प्रक्रिया आगे से आगे चलती रहती है और पूरा पदार्थ आग के गोले में बदलकर तबाही मचा देता है। कोरोना वायरस भी किसी मोहल्ले के एक व्यक्ति से आरंभ होकर परिवार, मोहल्ले, शहर और आगे जाकर पूरे देश को चपेट में ले लेता है। अत: हमें अब भी संभल जाना चाहिए। मास्क और सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करें, वेक्सीन लगाएं और इसके लिए लोगों को प्ररित करें। क्यों न देश के लिए अच्छी चीजों का आरंभ हम अपने घर से ही करें। तभी तो लोकतंत्र मजबूत होगा।

माधव नागदा
कहानीकार एवं समालोचक
लालमादड़ी (नाथद्वारा) 313301
मो. 9829588494