Genealogy of Rajputs : मेवाड़ के सूर्यवंशी गुहिलोत -सिसोदिया राजवंश के राजपूतों की वंशावली एवं इतिहासहिन्दु कुल सूर्यवंश के रूप में विश्वविख्यात मेवाड़ के गुहिलोत राजवंश का इतिहास भगवान श्रीराम के पुत्र लव के वंशजो से सम्बन्धित है। इस क्षत्रिय राजपूत वंश को गुहिल, गहलोत, गोहिल्य, गोहिल भी कहा गया है। मेवाड़ प्रदेश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाला एकमात्र यही राजवंश है जो अपनी गौरवशाली परम्पराओं के कारण ‘हिन्दुआ सूरज’ के नाम से विख्यात है।

History Of Rajputs : महाकवि रणछोड़भट्ट कृत शिलोत्कीर्ण राजप्रशस्ति के अनुसार महाराज सुमित्र के पश्चात् वज्रनाथ, महारथी,अतिरथी, अचलसेन, कनकसेन, महासेन, अंगसेन, विजयसेन, अजयसेन, अभंगसेन, मद्रसेन एवं सिंहरथ नामक इक्ष्वाकुवंश के १२ राजाओं ने अयोध्या पर शासन किया। महाराज सिंहरथ के पुत्र महाराज विजयादित्य ने अयोध्या का परित्याग किया और दक्षिणापथगामी होकर वहां के राजाओं को युद्ध मे पराजित किया। महाराज विजयादित्य ने ई. पू. १३३४ के आसपास अयोध्या के स्थान पर दक्षिण भारत के किसी स्थान को अपना शासन केन्द्र बना लिया था।

Dynasty : मैत्रक राजवंश की स्थापना

इतिहासकार विपिनशाह के अनुसार महाराज सुमित्र के पुत्र महाराज वज्रनाभ मैत्रक की कई पीढ़ियो बाद महाराज कनकसेन हुए जिन्होंने लवकोट (लाहौर) को अपना केन्द्र बनाया। महाराज कनकसेन की १२वीं पीढ़ी में महाराज वज्रनाभ द्वितीय एवं १५वीं पीढ़ी में महाराज विजयसेन भट्टार्क हुए। महाराज विजयसेन भट्टार्क ने वल्लभीपुर के मैत्रक राजवंश की स्थापना की। वल्लभीपुर के मैत्रक राजवंश के संस्थापक भट्टार्क विजयसेन (४७०-४९२ ई.) के पश्चात् क्रमशः महाराज धरसेन (४९३-४९९ ई.), महाराज द्रोणसेन (५००-५२० ई.), महाराज ध्रुवसेन (५२०-५५० ई.), महाराज धरपट्टसेन (५५०-५५६ ई.) एवं महाराज ग्रहसेन (५५६-५६९ ई.) वल्लभीपुर के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। महाराज ग्रहसेन के समय के कई ताम्रपत्र मिले है जिनमें उनके सुशासन का उल्लेख हुआ है। एक ताम्रपत्र में महाराजा ग्रहसेन को कामदेव जैसा रूपवान, हिमालय जैसा धैर्यवान, समुद्र की तरह गम्भीर, बृहस्पति की तरह ज्ञानवान, कुबेर जैसा धनवान और महान बताया गया है। ये विद्वानों के आश्रयदाता थे।

Dynasty of rajput : महाराज ग्रहसेन का विवाह

महाराज ग्रहसेन का प्रथम विवाह चन्द्रावती के परमार नरेश की पुत्री पुष्पावती से और द्वितीय विवाह ईरान के सम्राट नोशेरवां की पुत्री से हुआ था। कालान्तर में किसी कारण से ईरान के सम्राट् नौशेरवां ने वल्लभीपुर पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में वल्लभीपुर नरेश महाराज ग्रहसेन वीरगति को प्राप्त हुए। उस समय महारानी पुष्पावती अपने पिता के राज्य चन्द्रावती में थी। वह युद्ध की बात सुनकर वल्लभीपुर के ओर निकल पड़ी। मार्ग में युद्ध की समाप्ति और जोहर की बात सुनकर महारानी पुष्पावती सती होने को तैयार हुई, किन्तु गर्भवती होने के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें सती होने से रोक दिया। मलिया नामक शैल माता की गुफा में उन्होंने पुत्र को जन्म दिया। इसके बाद रानी पुष्पावती ने वीरनगर गांव की कमलावती ब्राह्मणी को अपने पुत्र के लालन-पालन का दायित्व सौंपकर सती हो गई। इसके बाद कमलावती ने रानी के पुत्र अपने पुत्र की भांति पालण-पोषण किया कालान्तर में वही पुत्र ‘गुहिल’ अथवा गुहादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिनके वंशज गोहिल, गहलोत (गुहिलोत) राजपूत कहलाये। गुहादित्य में क्षत्रियोचित गुण होने से वह भीलों का सरदार बन गया तथा भील राजा माण्डलिक ने ईडर का राज्य गुहादित्य को सौंप दिया। इसके बाद गुहादित्य की ८वीं पीढ़ी तक ईडर राज्य पर गुहिलों का शासन रहा। इस गुहादित्य ने ५६६ ई. के लगभग मेवाड़ के पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र में आकर अपना राज्य स्थापित किया। राजा गुहादित्य के बाद राजा भोजादित्य, राजा महेन्द्र प्रथम, राजा नागादित्य (राजा नागादित्य ने अपने नाम से नागदा पाटण बसाई), राजा शिलादित्य, राजा अपराजित, राजा महेन्द्र द्वितीय (रूपरावल) आदि शासक बने।

Bappa Rawal : हिन्दू सम्राट महाराजा कालभोज (बप्पा रावल)

महाराजा कालभोज का जन्म गुहिल वंश में वि.सं. ७७० में नागदा में पुष्पादेवी के गर्भ से हुआ। कालभोज का लालन-पालन एक ब्राह्माण परिवार ने किया। वैद्यनाथ प्रशस्ति के अनुसार बप्पा का मूल नाम ‘कालभोज’ था तथा ‘बप्पा’ इसकी उपाधि थी। प्रजा ने महाराजा कालभोज के प्रजासंरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही इन्हें ‘बप्पा’ पदवी से विभूषित किया था।
कालभोज नागदा की पहाड़ियों में एक तपस्वी योगी हारित ऋषि की नियमित सेवा करने लगे। हारित ऋषि ने कालभोज की सेवा से प्रसन्न होकर शैवमंत्र की दीक्षा दी तथा ‘एकलिंगजी के दीवान’ की उपाधि दी। कालभोज की निःस्वार्थ भक्ति और प्रगाढ़ शिव पूजन देखकर भवानी भगवती ने प्रकट होकर दिव्यास्त्र देते हुए आशीर्वाद दिया। बप्पा रावल को नाहरमगरा की तलहटी में स्वयं गुरू गोरखनाथ ने दर्शन दिए। हारित ऋषि के आशीर्वाद से श्री गोरखनाथ जी ने बप्पा रावल को दुधारी वाली तलवार भेंट की तथा इनको रावल की पदवी देकर सम्मान बढ़ाया, तभी से मेवाड़ के शासक अपने नाम से पूर्व ‘रावल’ की पदवी लगाते है।
(इस दुधारी तलवार में यह गुण था कि मंत्र पढ़कर चलाने से चट्टान के भी टुकड़े हो जाते। इस चमत्कारी तलवार को अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण करके प्राप्त की और दिल्ली ले गया था, जिसे बाद में मगरांचल (बदनोरा राज्य) के भीमसिंह चौहान ने प्राप्त की और तत्पश्चात् भीमसिंह चौहान से राणा हम्मीर ने पुनः प्राप्त की।) बप्पा रावल के समय चित्तौड़ पर मोर्य वंश के राजा मान मोरी का शासन था। हारित ऋषि के आशीर्वाद से ७३४ ई. में बप्पा रावल ने राजा मानमोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया। बप्पा रावल ने हिन्दूसूर्य, राजगुरू और चकवेसार्वभौम की पदवी धारण की।

Bappa Rawal ने हज्जात की सेना को उनके राज्य तक खदेड़ा

हज्जात ने सन् ७३५ ई. में राजपूताने पर आक्रमण करने के लिए सेना भेजी, बप्पा रावल ने हज्जात की सेना को युद्व में परास्त कर उनके राज्य तक खदेड़ दिया। अरब इस्लामियों का सन् ६३२ ई. के पश्चात् अत्यंत प्रेरणादायी रूप से साम्राज्यिक उत्थान हुआ । उन्होंने एक सौ वर्ष के भीतर ही अपने साम्राज्य को पश्चिम में स्पेन से पूर्व में चीन तक विस्तारित किया। इस दौरान अरब इस्लामिक जिस भी प्रदेश को विजय कर लेते, वहां के लोगो के पास केवल दो ही विकल्प रखते – ‘वे सभी उनका धर्म स्वीकार कर ले या मौत के घाट उतरे ।” उन्होंने कई महान संस्कृतियों, सभ्यताएं, शिष्टाचारो को रौंध डाला, अनेको मंदिर, चर्च, पाठशालाएं, ग्रंथालय नष्ट कर डाले। कला और संस्कृतियों को जला डाला। सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा रखा था। इस तरह उस समय अरबों का रक्तरंजीत साम्राज्य विस्तार सम्पूर्ण विश्व के लिए एक भयावह घटना थी।

Bappa Rawal का अरबों से युद्ध

ग्रीस, इजिप्त, स्पेन, अफ्रीका, इरान आदि महासत्ताओ को कुचलने के बाद अरबो के खुनी पंजे हिन्दुस्तान की भूमि तरफ बढे। अरबो ने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान को जीतकर वहां की संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट करने हेतु महत्वाकांक्षी खलीफा ने ई. सं. ७३८ में बगदाद के खलीफा वलीद ने जब सेनापति जुनैद के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण करवाया तो बप्पा रावल के नेतृत्व में भारत के समस्त राजाओं ने जुनैद का सामना किया, जिसमें प्रतिहार राजपूत नागभट्ट प्रथम भी थे। इस युद्ध में बप्पा रावल ने अरबों को अरब तक रौंदते हुए विजय प्राप्त की और काबुल-ईरान तक (तत्कालीन ईरान की सीमा तुर्क तक थी ) अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
इस विजय के उपलक्ष में बप्पा रावल ने अपने इष्ट स्वयम्भू महादेव एकलिङ्गनाथ जी का भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया। बप्पा रावल ने एकलिङ्गनाथ जी को चित्तौड़ का स्वामी और स्वयं को उनका सेवक और दीवान घोषित किया। यह वंश परम्परा से नियम बना रहा, एकलिङ्गनाथ जी को मेवाड़ के महाराणा मानने और स्वयं को उनका दीवान मानने में गौरव समझते थे। धन्य है मेवाड़ राजवंश, भगवान् शिव के प्रति इतनी भक्ति किसी राजवंश में नहीं दिखती। बप्पा रावल ने गजनी के शासक सलीम को युद्व में परास्त कर गजनी प्रदेश में अपना सैन्य ठिकाना स्थापित किया, जहां से उनके सैनिक अरब सेना की गतिविधियों पर नजर रखते थे।

ये भी पढ़ें : Maharana Pratap का जन्म कब, कहां हुआ, राणा प्रताप के जीवन से जुड़े रोचक तथ्य

बाटल ऑफ द पास युद्ध

सन् ७४२ ई. में सामर्रा के हिशाम मलिक ने अपने सेनापति मसलमा के नेतृत्व में लाखो की फौज को सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस युद्ध को इतिहास में “बाटल ऑफ द् पास” कहा गया। यह युद्ध बप्पा रावल तथा २००,६२५ जेहादी आक्रमणकारियों के मध्य लड़ा गया था। बप्पा रावल ने युद्ध में इन सभी को तलवार से गाजर-मूली की तरह काटते-काटते अरब की सीमा रेखा तक खदेड़ दिया। सामर्रा के हिशाममलिक को जब यह सूचना मिलती है कि भारतवर्ष के सम्राट बप्पा रावल सेनापति मसलमा को पराजित कर सामर्रा तक रौंद दिया हैं तो वह बप्पा रावल के सामने जाकर आत्मसमर्पण कर देता है। भारतवर्ष के सम्राट बप्पा रावल ने सामर्रा पर भगवा ध्वजा लहराकर इसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

महाराजा कालभोज (बप्पा रावल) ने सन् ७४८ ई में अब्बासी वंश मुहम्मद इब्न मरवान द्वितीय (आर्मेनिया के सुल्तान) एवं उमय्यद वंश के हज्जाज (खुरासान के सुल्तान) पर आक्रमण करने के लिए चढ़ाई करी। इन दोनों क्रूर शासकों ने स्पेन पर आक्रमण कर यूरोप की नारियों को गुलाम बना कर रखा था। महाराजा कालभोज इन दोनों पर काल बनकर टूट पड़े। महाराजा कालभोज ने आर्मेनिया के सुल्तान मुहम्मद इब्न मरवान द्वितीय को मौत के घाट उतार दिया एवं खुरासान के सुल्तान को खुरासान से आगे तक खदेड़ दिया । इस तरह अनेक युद्ध अभियानों के द्वारा बप्पा रावल ने अपने शासनकाल में हिन्दुस्तान को इस्लामिक आक्रमकारियों से मुक्त करवा कर अनेक प्रदेशों सिंध, बलोचिस्तान, ईरान, इराक, तुर्किस्तान, चित्राल का दुर्गम प्रदेश, मध्य एशिया, चीनी तुर्कीस्तान तक विजय प्राप्त कर अपना साम्राज्य का विस्तार किया।

अरबों की पराजय का वर्णन फुतूहूल्बदान नामक ग्रन्थ में

मुस्लिम इतिहासकारों ने अरबों की पराजय का वर्णन फुतूहूल्बल्दान नामक ग्रन्थ में किया है जिसमें अरब लिखते है कि ‘हिन्दुओं ने अरबी मुसलमानों के लिए अल्पमात्र की भूमि भी नहीं छोड़ी, इसलिए उन्हें भागकर दरिया के उस पार एक महफूज नगर बसाना पड़ा। बार-बार भारत में अपनी सेना की हानि होने की वजह से अपनी बची हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए अरबो ने यह निश्चय कर लिया कि भारत के किसी भी हिस्से पर वे कभी भी आक्रमण नहीं करेगे।’ इसलिए इसके बाद अरबों ने ३५० वर्षो तक भारत के किसी भी हिस्से पर धाक नहीं जमायी। कालान्तर में शान्ति व्यवस्था होने पर बप्पा रावल ने साम्राज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र खुमाण रावल को सौंपकर तथा साम्राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए अन्य छः पुत्रों को प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त कर ७५३ ई. में संन्यास ले लिया। आम्र कवि द्वारा लिखित एकलिंग प्रशस्ति में बप्पा रावल के संन्यास लेने की घटना की पुष्टि होती है।

Bappa Rawal के पुत्र व इनके वंशज

खुमाण रावल बप्पा रावल का ज्येष्ठ पुत्र खुमाण रावल प्रथम था जो मेवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी हुए। रावल खुमान ने राजपूत राजाओं व अन्य सांमतो को एकजुट करके मेवाड़ का शासन कार्य चलाया।

मन्ना रावल

खुमाण रावल के छोटे भाई मन्ना रावल के बलाण रावल (बिल्हण) हुए जिनके रायपालजी व मेहसी हुए जो चित्तौड़गढ़ छोड़कर कुछ समय नागदा पाटन में रहे। इन्होंने वि.स. ८६० में गांव घाटा बसाया जो कुम्भलगढ़ के पास में है।
रायपालजी के पुत्र बरपालजी के वंशज “बरगट गुहिलोत” कहलाते है। बरपालजी के वंश में क्रमशः हरपाल जी, तरपाल जी हुए। तरपाल जी ने दिवेर के समीप तरपालों का खेड़ा बसाया। तरपालजी के पुत्रों में कानाजी, रेहड़जी, भलियाजी थे।
तरपालजी के पुत्र भलियाजी के वंशज “भलियावत गुहिलोत” व कानाजी के वंशज “कनड़ावत गुहिलोत” कहलाये। रेहड़जी के नाड़ियाजी के वंशज “नाड़ियावत गुहिलोत” कहलाये। बरपालजी के भाई सोमेश्वर थे, जिनके पुत्र विहलजी हुए, जिनके वंशज “विहलात गुहिलोत” कहलाये, इनके मुख्य ठिकाणे जोड़किया, नाहरपुरा और मारवाड़ क्षेत्र में है। बलाण रावल के द्वितीय पुत्र मेहसी के कालिया व नागिया हुए। कालियाजी के वंशज “कीटावत गुहिलोत” व नागिया के वंशज “चरेड़ गुहिलोत” कहलाते है। कीटावत गुहिलोत वंशजो के ठिकाणे बादरिया, होकरा, छापली, मिनकियावास, आमेट तथा चरेड़ गुहिलोत वंशजो के ठिकाणे खेड़ाजस्सा, दिवेर आदि है। बलाण रावल की वंश परम्परा में वजाजी हुए, जिनके वंश में क्रमशः तेजाजी, देवसी हुए।
देवसी के दो पुत्र हुए– मन्नो रावल और चन्द्र रावल। मन्नो रावल के वंश में क्रमशः महिपाल, वीरमजी, वेणाजी हुए।
वेणाजी के पुत्रो में बाहराजी व कल्लाजी हुए। बाहराजी के पुत्र गोदाजी के वंशज “गोदावत गुहिलोत” कहलाये जिनके मुख्य ठिकाणे शाहपुरा, उमर बावड़ी, बोरवागढ़ आदि है। वेणाजी के पुत्र कल्लाजी के वंश में क्रमशः दानाजी, सरवरजी, केलाजी, वेलाजी, भीमाजी हुए। भीमाजी के वंशज “भूण्डक गुहिलोत” कहलाये जो फताखेड़ा, फतेहपोल व भोजपुरा आदि गांवो में रहते है। मन्ना रावल के भाई चन्द्र रावल के पुत्र किशना रावल हुए, जिनके दो पुत्र महेन्द्र रावल और कुन्दन रावल हुए।
महेन्द्र रावल के वंशज “महेन्द्रावत गुहिलोत” कहलाये, जिनके मुख्य ठिकाणे बोरवागढ़, रामगढ़, ठिकराणा, बाघमाल और मसूदागढ़ है। कुन्दन रावल के पुत्र मन्ना रावल के वंशज “मन्नावत गुहिलोत” कहलाये।

✽ खेम रावल

बप्पा रावल के पुत्र खेम रावल के वंश में भादूजी हुए जिनके वंश परम्परा में सूडजी के दो पुत्र कच्छजी व खंगारजी हुए। कच्छजी के वंशज “काछी गुहिलोत” कहलाये जो काछिया सवादड़ी, परबतगढ़, जौहरखेड़ा आदि ठिकाणों में रहते है। खेमरावल की वंश परम्परा में गुरूरावल हुए, जिनके वंशज “गरतुण्ड गुहिलोत” कहलाये। इनके पूर्वज नरवर में रहते थे जो यहीं से निकलकर मसूदागढ़, श्यामगढ़, रतनगढ़, बरसावाड़ा, सेन्दड़ा आदि क्षेत्रों में बस गये। खेम रावल के वंश में भादू रावल की वंश परम्परा में धवलदेव हुए। इन्हीं के वंश परम्परा में गोपालजी हुए, जिनके वंश “डींगा गुहिलोत” कहलाये। गोपालजी के वंश में पीथाजी का एक वंशज मांगलियावास से आकर सोनियाणा गांव बसाया तथा यहीं से कुछ वंशज निकलकर कूकरखेड़ा बसाया।
खेम रावल के वंश में बावलजी के वंशज “बावलात गुहिलोत”, मादाजी के वंशज “मादावत गुहिलोत”, धर्मलाजी के वंशज ‘धर्मलात गुहिलोत” कहलाये।

✽ जहरी रावल

बप्पा रावल के पुत्र जहरी रावल के वंश में क्रमशः जलरूप, भीमजी, खेराजी, भूराजी, मालाजी, बालाजी हुए। बालाजी के वंशज “बालोत गुहिलोत” कहलाए जो नीमड़ी, गढ़ी थोरियान, बोराज आदि ठिकाणों में रहते है।

✽ ईश्वर रावल

बप्पा रावल के पुत्र ईश्वर रावल के वंश में क्रमशः सालभाण, सलवण, हालरावल, नरबदरावल हुए। नरबद रावल के पुत्र वण रावल के वंशज “वाणियात गुहिलोत” और लेहर रावल के वंशज “लोहरावत गुहिलोत” कहलाये। वाणियात गुहिलोत वंशजो के मुख्य ठिकाणे चांग, सुमेल, रूपाहेली, देवाता, सारोठ, नाहरपुरा, अतीतमण्ड आदि है तथा लोहरावत गुहिलोत के मुख्य ठिकाणे गोहणा, सेदरिया आदि है।

✽ पदम रावल

बप्पा रावल के पुत्र पदम रावल जी के वंश में डागल रावल के वंशज “डागल गुहिलोत” कहलाए, जो शम्भुपुरा, नरबद खेड़ा आदि में रहते है। पदम रावल के वंश में क्रमशः दादूजी, मणजी, रोहेलाजी, जोधाजी, गोदरसी, करमसी, चन्दाजी आदि हुए।
चन्दा रावल के वंशज कुवाथल, करमाबाड़िया, गिर्वा व मेवाड़ के क्षेत्रों में रहते है। रोहेलाजी के वंशज “रहलोत गुहिलोत” कहलाते है।

✽ मोट रावल

बप्पा रावल के पुत्र मोट रावल के वंशज “मोटावत गुहिलोत” कहलाये। मेवाड़ के गुहिल वंश के शासक बप्पा रावल की २५वीं पीढ़ी में रणसिंह (कर्णसिंह ११५८ ई.) हुये, जिनके पुत्र क्षेमसिंह और राहप हुये। राजवंश की परम्परा के अनुसार बड़े पुत्र क्षेमसिंह मेवाड़ के शासक बने तथा छोटे पुत्र राहप ने राणा शाखा की शुरुआत कर सिसोदा ठिकाने की स्थापना की। कालान्तर में इसी राणा शाखा के वंशज सिसोदा गांव में निवास करने के कारण ही “सिसोदिया राजपूत” कहलाये। चित्तौड़गढ़ दुर्ग के प्रथम साके के समय (१३०३ ई.) रावल रत्नसिंह जब वीरगति को प्राप्त हो गए, तब उनके बाद राणा शाखा के सिसोदा ठिकाने वाले राणा अरिसिंह के पुत्र राणा हम्मीर सन् १३२६ ई. में मेवाड़ के शासक बने, तभी से मेवाड़ के नरेश ‘महाराणा’ कहलाने लगे

गुहिलवंशीय बप्पा रावल (७३४-७५३ ई.) के पश्चात् मेवाड़ के निम्न शासक हुए

१). रावल खुमान (७५३- ७७३ ई.)
(२). रावल मत्तट (७७३-७९३ ई.)
(३). रावल भर्तभट्ट (७९३-८१३ ई.)
(४). रावल सिंहा (८१३-८२८ ई.)
(५). रावल खुमान- II (८२८-८५३ ई.)
(६). रावल सहायक (८५३-८७८ ई.)
(७). रावल खुमान- III (८७८-९४२)
(८). रावल भर्तृभट्ट- II (९४२-९४३ ई.)
(९). रावल अल्लट (९५१-९५३ ई.)
(१०). रावल नरवाहन (९७१-९७३)
(११). रावल शालिवाहन (९७३-९७७ ई.)
(१२). रावल शक्तिकुमार (९७७-९९३ ई.)
(१३). रावल अम्बाप्रसाद (९९३-१००७ ई.)
(१४). रावल शुचिवर्मा (१००७-१०२१ ई.)
(१५). रावल नरवर्मा (१०२१-१०३५ ई.)
(१६). रावल कीर्तिवर्मा (१०३५-१०५१ ई.)
(१७). रावल योगराज (१०५१-१०६८ ई.)
(१८). रावल वैरठ (१०६८-१०८८ ई.)
(१९). रावल हंसपाल (१०८८-११०३ ई.)
(२०). रावल वैरसिंह (११०३-११०७ ई.)
(२१). रावल विजयसिंह (११०७-११२७ ई.)
(२२). रावल अरिसिंह (११२७-११३८ ई.)
(२३). रावल चोघसिंह (११३८-११४८ ई.)
(२४). रावल विक्रमसिंह (११४८-११५८ ई.)
(२५). रावल रणसिंह (११५८-११६८ ई.)
(२६). रावल क्षेमसिंह (११६८-११७२ ई.)
(२७). रावल सामंतसिंह (११७२-११७९ ई.)
(२८). रावल कुमारसिंह (११७९-११९१ ई.)
(२९). रावल मंथनसिंह (११९१-१२११ ई.)
(३०). रावल पदमसिंह (१२११-१२१३ ई.)
(३१). रावल जैत्रसिंह (१२१३-१२५३ ई.)
(३२). रावल तेजसिंह (१२६१-१२६७ ई.)
(३३). रावल समरसिंह (१२७३-१३०२ ई.)
(३४). रावल रतनसिंह (१३०२-१३०३ ई.)
(३५). महाराणा हम्मीरसिंह (१३२६-१३६४ ई.)
(३६). महाराणा खेतासिंह (१३६६-१३८२ ई.)
(३७). महाराणा लाखा (१३८२-१४२१ ई.)
(३८). महाराणा मोकल (१४२१-१४३३ ई.)
(३९). महाराणा कुम्भा (१४३३-१४६८ ई.)
(४०). महाराणा उदयकर्ण (१४६८-१४७३ ई.)
(४१). महाराणा रायमल (१४७३-१५०९ ई.)
(४२). महाराणा संग्रामसिंह (१५०९-१५२७ ई.)
(४३). महाराणा रतनसिंह- II (१५२७-१५३१ ई.)
(४४). महाराणा विक्रमादित्य (१५३१-१५३६ ई.)
(४५). महाराणा उदयसिंह (१५३७-१५७२ ई.)
(४६). महाराणा प्रतापसिंह (१५७२-१५९७ ई.)
(४७). महाराणा अमरसिंह (१५९७-१६२० ई.)
(४८). महाराणा कर्णसिंह (१६२०-१६२८ ई.)
(४९). महाराणा जगतसिंह (१६२८-१६५२ ई.)
(५०). महाराणा राजसिंह (१६५३-१६८० ई.)
(५१). महाराणा जयसिंह (१६८०-१६९८ ई.)
(५२). महाराणा अमरसिंह (१६९८-१७१० ई.)
(५३). महाराणा संग्रामसिंह (१७१०-१७३४ ई.)
(५४). महाराणा जगतसिंह- II (१७३४-१७५१ ई.)
(५५). महाराणा प्रतापसिंह – II (१७५१-१७५४ ई.)
(५६). महाराणा राजसिंह- II (१७५४-१७६१ ई.)
(५७). महाराणा अरिसिंह- II (१७६१-१७७३ ई.)
(५८). महाराणा हमीरसिंह- II (१७७३-१७७८ ई.)
(५९). महाराणा भीमसिंह (१७७८-१८२८ ई.)
(६०). महाराणा जवानसिंह (१८२८-१८३८ ई.)
(६१). महाराणा सरदारसिंह (१८३८-१८४२ ई.)
(६२). महाराणा स्वरुपसिंह (१८४२-१८६१ ई.)
(६३). महाराणा शम्भुसिंह (१८६१-१८७४ ई.)
(६४). महाराणा सज्जनसिंह (१८७४-१८८४ ई.)
(६५). महाराणा फतेहसिंह (१८८४-१९३० ई.)
(६६). महाराणा भूपालसिंह (१९३१-१९५५ ई.)
(६७). महाराणा भगवतसिंह (१९५५-१९८४ ई.)
(६८). महाराणा महेन्द्रसिंह ए्वं महाराणा अरविन्द सिंह मेवाड़
(१९८४ ई. से निरंतर

प्राचीन शिलालखों में वर्णन

बप्पा रावल का ऐतिहासिक वर्णन कुम्भलगढ़ प्रशस्ति, रणकपुर प्रशस्ति, वैद्यनाथ प्रशस्ति, एकलिंग प्रशस्ति, कीर्ति स्तम्भ शिलालेख, आबू के शिलालेख आदि में किया गया है। बप्पा रावल प्रथम गुहिल शासक था जिसने मेवाड़ में सोने के सिक्के का प्रचलन किया, जो उसकी प्रतिभा और वैभव का प्रतीक था। इस ११५ ग्रेन के सिक्के पर कामधेनु, बछड़ा, शिवलिंग, नदी, दंडवत पुरूष, मछली, त्रिशुल, सूर्य आदि का अंकन है। बप्पा रावल ने कैलाशपुरी गांव में अपने कुलदेवता एकलिंगजी का मन्दिर व इसके पीछे आदिवराह का मंदिर तथा चित्तौड़ में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया। इतिहासकारों ने चार्ल्स मार्टेल (मुगल सेनाओं को सर्वप्रथम पराजित करने वाला फ्रांसिसी सेनापति) की तुलना बप्पा रावल से की है। (क्योंकि बप्पा रावल ने सबसे पहले विदेशी अरबो को पराजित किया।)

War of rajputs : शौर्य की चट्टान के आगे ज्वारभाटा टकराकर चूर- चूर

इतिहासकार सी.वी. वैद्य के अनुसार “उसकी शौर्य की चट्टान के सामने अरबों के आक्रमण का ज्वारभाटा टकराकर चूर-चूर हो गया। उसने ईस्फान, कंधार, इराक, ईरान, तुरान, काफरिस्थान आदि पश्चिमी देशों के शासकों को हराया।” इस गौरवशाली वंश में जन्म लेने वाले महाप्रतापी हिन्दू सम्राट बप्पा रावल ने ईरानी और अरबी यवन आक्रान्ताओं के इस्लामी साम्राज्यवाद से संघर्ष कर हिन्दू धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा की थी। इसी वंश में महाराणा हम्मीर, महाराणा लाखा, पितृभक्त महाराणा चूंडा, महाराणा कुंभा जैसे वीर शिरोमणी, उदार और महापराक्रमी शासक हुये थे जिन्होंने हमारे राष्ट्र की अस्मिता और अखण्डता के लिए विदेशी आक्रान्ताओं से लगातार संघर्ष किया। महाराणा प्रताप की वीरता, हिन्दुत्व का स्वाभिमान तथा भारत भूमि को मुगलों से मुक्त कराने की उत्कट आकांक्षा इसी महान विरासत की देन थी जिसे उन्होंने अपने जीवन में भी कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया।

संकलित लेख, साभार – मेवाड़ का इतिहास। ( इतिहास की जानकारी में अगर कोई त्रुटि रह गई हो और सुधार की जरूरत हो तो जरूर मार्गदर्शन करें।)