सुबह का समय था। सेहत जैसी थी, वैसी ही थी। जैसी होनी चाहिए थी, वैसी नहीं थी। अब ठीक होने से रही, लेकिन जिसे झेलना है, वह चाहती है, हमारी सेहत पहले से अच्छी हो। उसने ये कभी नहीं कहा, ये बदलाव स्वयं में भी हो। उस पर तो परिवार का बोझ है और उसमें सबसे बड़ा बोझ हम ही हैं। यह बोझ एक बार लद जाए, तो गधे की तरह ढोना पड़ता है। अगर बोझ सुन्दर, सलीके का हो तो मन को सुकून रहता है । बोझ है, लेकिन दर्शनीय है। पत्नी के लिए आप बोझ हैं, लेकिन आपके लिए पत्नी। कह दिया तो उल्टे बांस बरेली के हो जाएंगे। बांस को सीढ़ी बनाए रखने के लिए पत्नी का अनुसरण करते रहना चाहिए। उसकी गलत बातों का पार्टी की गलत नीतियों की तरह जहां से गुलगुले मिले वहां की आलोचना नहीं करनी चाहिए।
जब लड्डू की तलब लगी हो, तो हलवाई को गालियां नहीं देना चाहिए। शिक्षा ग्रहण करनी हो तो गुरू को भी सम्मान दे देना चाहिए। मोहल्ले में रौब जमाना है, तो नगर पार्षद को डलिया भी भेजना चाहिए। चालान से बचना हो तो सभी को थानेदार समझना चाहिए। अगर शांति चाहिए तो अशांति पैदा करना भी जरूरी है। अशांति ऐसी हो, जिससे मौन का निर्माण हो। डंडे वाली अशांति आपको पूर्ण शांति कर सकती है।
बहरहाल…….. दिल्ली की ठंड में घूमने जाने का मन बनना यानी सत्ता पद को लात मारना । जब पत्नी से गर्मा-गर्मी हो जाए, तो दिल्ली की ठंड में भी गर्मी का अहसास हो जाता है। अहसास होना लेखन की प्रथम सीढ़ी है। जो लिखते हैं, उन्हें अहसास जल्दी हो जाता है। पत्नी के मायके जाने का अहसास, पड़ोसन के मायके जाने के विपरीत होता है। आप दुख और खुशी का अहसास दोनों स्थितियों में नहीं कर सकते। कई बार कृत्रिम दुःख और कृत्रिम सुख का दिखावा करना पड़ता है । जो सफल है उसका जीवन सफल है, नहीं तो मरने के बाद ही स्वर्ग मिलता है।
खैर…….. जैसे-तैसे घूमने निकल पड़े। या यूं कह लो धक्के मार के निकाल दिए गए। कभी-कभी घूमना भी चाहिए / घुमाना भी चाहिए। घुमाने की एक उम्र होती है और घूमने की भी । घुमाने की उम्र में आस पास कुछ दिखाई नहीं देता । घूमने की उम्र में आसपास का ही दिखाई देता है। भगवान ने स्मृति लोप का वरदान नहीं दिया होता तो मेमोरी को डिलीट करना सबसे बड़ी समस्या हो जाती । तुलना में पूरी जिन्दगी निकल जाती। ये अच्छी है या खैर घूमते-घूमते कई नए विचार आते और पुराने विचार जमा होते चले जाते हैं।
घूमने के स्थान आप तय करते हैं। कहां घूमना चाहिए, कहां नहीं / यूपी में तो बिल्कुल नहीं। घूमने के लिए सबसे उन्मुक्त जगह मुंबई और गोवा है। वह इसलिए कि हर घूमने वाला जानता है कि दूसरे के दिमाग में दही जमा है, वह उसे पिघलाने की कोशिश में जुटा है। दुनिया जाए भाड़ में। वहां पर सभी की दुनिया अलग-अलग होती है। उनकी दुनिया से आप कुछ भी निकाल लें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, यहीं कारण है कई फिल्मों के शीर्षक / कहानियां / प्लॉट यहीं से मिल जाते हैं। कुछ कभी कभार एकाद गांव से भी खोज लाते हैं। अगर इस उम्र में गोवा और मुंबई जाकर घूमने का प्रस्ताव रखा] तो दो-चार वीटो धड़ाम से आ गिरेंगे और आप औंधे मुंह किसी पार्क पाथ पर आस पास नज़रे चुराकर देखते और घूमते नज़र आएंगे।
मित्रों से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता। मेरे भी मित्र हैं। कुछ ऐसे मित्र हैं जो कहते हैं कि भैया शुक्रवार को एक विचार भेज देना। कुछ मित्र किताब भेज देते हैं तो कभी हम ही अपने दुश्मन बन जाते हैं और किताब खरीद लाते हैं। समस्या यह नहीं हैए समस्या है घर की समस्याओं से बचना और पढ़ने के लिए समय निकालना। बच्चों को अपने से फुरसत नहीं, बची पत्नी । उसे आप नकार नहीं सकते, हिम्मत है तो नकारकर दिखाएं / जब हमारे बॉस के बॉस दुम हिलाते हैं तो हमारी औकात ही क्या है ?
जब पढ़ना है तो कुछ जुगत करनी ही पड़ती है। हमने भी पत्नी से ना……. ना करते नासमझी दिखाते हुए झूठ-मूठ का गुस्सा- गुस्सी कर ली। सब समझौते शाम ढलते ही समाप्त हो जाते हैं। पूरा ध्यान रखा, यह समझौता एक सप्ताह बाद ही करना है, क्योंकि जो किताबें आई हैं, उन्हें पढ़ना भी तो है। इस योजना पर अमल अपनी जोखिम पर करें। मानहानि – जनहानि – सरफुटाई और हाथ पैर को हुए नुकसान के लिए झम्मन जिम्मेदार नहीं होगा।