मेवाड़ का नाम न सिर्फ राजस्थान बल्कि भारत और पूरे विश्व में गर्व और वीरता का सूचक रहा है। इतिहास साक्षी है कि मेवाड़ के महाराणाओं ने राजसी ठाठ बाट को त्यागकर जंगल की सूखी रोटी स्वीकार कर ली, लेकिन विदेशी आक्रांताओं की गुलामी स्वीकार नहीं की।
बप्पा रावल से शुरू होता हुआ सफर रावल रतन सिंह, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप और महाराणा राज सिंह तक का इतिहास मेवाड़ में वीरता और शौर्य की अनूठी मिसाल रहा है। महाराणा सांगा और महाराणा प्रताप के किस्से तो बच्चे बच्चे की जुबान पर है, लेकिन 24 सितंबर को जन्मे महाराणा राजसिंह, 17वी शताब्दी के दौरान महाराणा राजसिंह राजपूताने में एक ऐसा नाम था, जिसने शक्तिशाली मुगल वंश को भी नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया। मुगल बादशाह औरंगजेब को भी महाराणा राज सिंह की वीरता और चतुराई के दम पर कई बार पीछे हटना पड़ा। वे महान प्रजा पालक, न्यायप्रिय और धर्म प्रेमी शासक थे। चाहे नाथद्वारा में श्रीनाथ जी की स्थापना हो या राजकुमारी चरुमति की रक्षा करने की बात हो। औरंगजेब किशनगढ़ की सुंदर राजकुमारी चारुमति से विवाह करना चाहता था लेकिन चारुमति ने महाराणा राज सिंह को पत्र भेजकर अपने सतीत्व की रक्षा करने की गुहार की तो ऐसे समय में कि जब यहां के सभी रजवाड़े मुगल बादशाह की गुलामी में हाथ बांधे खड़े थे, महाराणा राजसिंह ने अपूर्व साहस दिखाते हुए राजकुमारी चारुमति से विवाह कर लिया तथा मुगल बादशाह को अपनी कूटनीति के जाल में ऐसा फसाया कि औरंगजेब हमला भी नहीं कर सका। महाराणा राज सिंह ने औरंगजेब से सीधी टक्कर ना लेते हुए कूटनीतिक तरीके से अपने सीमावर्ती क्षेत्र पर भी अपना अधिकार कर लिया। इसके अलावा 1679 में महाराणा राज सिंह ने ही जजिया कर का विरोध किया था। मुगल दरबार के उत्तराधिकार के युद्ध में भी महाराणा राज सिंह ने कूटनीतिक तरीके से कार्य करते हुए किसी भी पक्ष को अपना समर्थन ना देकर निष्पक्ष रहे और मेवाड़ को सुरक्षित बनाए रखा।
जब मेवाड़ में भयंकर अकाल पड़ा तो महाराणा राजसिंह ने राजसमंद झील का निर्माण करवाकर जनता को एक ऐसी सौगात दी, जो आज भी यहां के जनमानस की प्यास बुझा रही है। राजसमंद झील के किनारे नौचौकी का निर्माण करवा कर रणछोड़ भट्ट तैलंग के निर्देशन में संस्कृत भाषा में संगमरमर के पत्थरों पर राज प्रशस्ति के 25 शिलालेखों का निर्माण करवाया, जो कि वर्तमान में भी विश्व के सबसे बड़े शिलालेख हैं। औरंगजेब के हुक्म के बाद जब मथुरा में भगवान कृष्ण के मंदिरों को तोड़ा जा रहा था तो दामोदरदास जी महाराज प्रभु श्रीनाथजी और द्वारिकाधीश जी को लेकर राजस्थान की तरफ आए, औरंगजेब के डर से राजस्थान के किसी भी राजा ने उनको शरण नहीं दी लेकिन ऐसे समय में महाराणा राज सिंह ने औरंगजेब के आदेश की अवहेलना करते हुए तत्कालीन सिंहाड़ गांव में उन्हें आश्रय प्रदान करते हुए श्रीनाथ जी का भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। जो आज भी वैष्णव भक्ति परंपरा का सिरमौर मंदिर है । इस तरह मेवाड़ के इतिहास में महाराणा राजसिंह का नाम उन महान शासकों की सूची में शामिल हो गया जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता ऐसे महान योद्धा चतुर शासक और जनप्रिय राजा को शत-शत नमन।
कुमार दिनेश
वरिष्ठ अध्यापक
राउमावि लोढीयाना (आमेट)
ज़िला राजसमन्द