विश्व भाषा दिवस के उपलक्ष्य में फिर हमारी मायड़ भाषा राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता दिलाने की संघर्षगाथा ताजा हो गई। ठेठ गांव- ढाणी से लेकर शहर के लोग, साहित्यकार, शिक्षक व जनप्रतिनिधि भी जब भी मौका मिलता है, अपनी राजस्थानी भाषा को 8वीं अनुसूचि में शामिल करने व संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग उठाते रहते हैं। बावजूद न तो सरकार स्तर के जनप्रतिनिधियों ने कभी गंभीरता से लिया और न ही राजस्थानी भाषा को मान्यता मिल पाई। आज Google Samachar की दुनिया में भी राजस्थानी भाषा की संघर्षगाथा को भी हिन्दी में लिखना मजबूरी बना हुआ है।
इसी संघर्ष की शृंखला में राजस्थान के राजसमंद जिला मुख्यालय पर साकेत साहित्य संस्थान के जिलाध्यक्ष पूरण शर्मा के नेतृत्व में राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग को लेकर CM Bhajanlal Sharma के नाम जिला कलक्टर डॉ. भंवरलाल को ज्ञापन दिया गया। IAS Dr. Bhanwarlal ने उनकी जायजा मांग को सरकार तक पहुंचाने का आश्वासन दिया। ज्ञापन में मुख्य रूप से राज्य में दूसरी राज्य भाषा का दर्जा दिलाने, अनिवार्य शिक्षा कानून में प्राथमिक शिक्षा का माध्यम राजस्थानी भाषा में बनाने और लोक सेवा आयोग की परीक्षा में अनिवार्य व ऐच्छिक भाषा विषय के रूप में शामिल करने की मांग उठाई। इस दौरान उपाध्यक्ष नारायण सिंह निराकार, कमल अग्रवाल, परितोष पालीवाल, रामगोपाल आचार्य, वीणा वैष्णव, कुसुम अग्रवाल आदि मौजूद थे।
जो आजादी से पहले थी राजभाषा, आज पहचान को मोहताज
राजस्थानी भाषा देश की आजादी से पहले राजस्थान, मालवा व उमरकोट (आज पाकिस्तान में ) की राजभाषा थी। साहित्यिक तौर पर जिस डिंगल ने दुनिया में डंका बजाया. वही देश आज अपने ही सूबे में पहचान की मोहताज है। व्यवसायिक नजरिए से अंग्रेजी सहत सभी भाषाएं कितनी भी समृद्ध नजर आती हो, लेकिन अपनत्व और आनंद की परम अनुभूति तो राजस्थानी भाषा में ही है, जो कहीं नही दिखती व मिलती। राजस्थानी भाषा की दर्जनभर बोलियां है, जिसमें मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, ढ़ूंढ़ाड़ी, वागड़ी, हाड़ौती, ब्रज, माळवी, भीली, पहाड़ी शामिल है, जबकि राजस्थान की साहित्यिक लेखनी डिंगली व पिंगल है। आजाद भारत के लिहाज से समझे तो उमरकोट व पश्चिमी राजस्थान में जिस भाषा में साहित्यिक रचनाएं होती है, वे डिंगल है और
लेखनी पर आधारित डिंगल व पिंगल भाषा
आजाद भारत के लिहाज से समझें तो उमरकोट और पश्चिमी राजस्थान के क्षेत्र में जिस भाषा में साहित्यिक रचनाएं होती थी। जब हम पूर्वी राजस्थान की ओर आते है और जहां राजस्थानी भाषा और ब्रज भाषा आपस में मिल जाती है। उस क्षेत्र की साहित्यिक रचनाएं जिस भाषा में हुई उसे “पिंगल” कहा गया।
नेताओं ने नहीं लिया कभी गंभीरता से, इसीलिए…
राजस्थान के जिन नेताओं पर राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की जिम्मेदारी थी, उन्हीं नेताओं ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। इसी वजह से आज भी राजस्थानी भाषा 8वीं अनुसूचि में शामिल नहीं हो पाई। हालांकि हाल ही राजस्थान में नवगठित भाजपा सरकार में कई विधायकों ने राजस्थानी भाषा में विधानसभा में पद की शपथ लेने का प्रयास किया, मगर कानून में नहीं होने से हिन्दी में शपथ लेनी पड़ी। विधायकों को इससे आगे बढ़कर राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए ठोस कदम लगातार उठाना होगा।
विश्वविद्यालयों ने तो दे रखी है मान्यता
राजस्थानी भाषा के मान्यता को लेकर तमाम जटिलता की बातें होती है, लेकिन लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग व भारत की साहित्य अकादमी ने इसे एक अलग भाषा के रुप में मान्यता दी है। यही वजह है कि जोधपुर के जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय के साथ उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय व बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह विश्व विद्यालय में राजस्थानी भाषा को पढ़ाया जाता है। यहां तय पाठ्यक्रम भी है, इसकी किताबें छपती है, पेपर तैयार होते है और परीक्षाएं भी होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर विश्वविद्यालयों राजस्थानी भाषा के विशेषज्ञ सरकार के पास है, तो प्रतियोगी परीक्षाएं में राजस्थानी भाषा में क्यों नहीं होती और राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए ठोस प्रयास क्यों नहीं होते।
मान्यता की संघर्षगाथा भी बहुत है लंबी
राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए सबसे पहले 1936 में आवाज उठी थी। देश आजाद हुआ तो 1956 में राज्य विधानसभा में मांग उठी। राजस्थानी भाषा को सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे संगठनों व लोगों ने सड़क से लेकर सदन तक आवाज उठाई है। 2003 में राजस्थान सरकार ने राज्य विधानसभा से एक प्रस्ताव पास कर केंद्र सरकार को भेजा। केंद्र सरकार ने तब एसएस महापात्रा की अगुवाई में एक कमेटी बनाई, जिसे सरकार को रिपोर्ट देनी थी। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट को 2 साल बाद पेश की। रिपोर्ट में कमेटी ने भोजपुरी के साथ राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने के लिए पात्र माना था। फिर वर्ष 2006 में केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तब सैद्धांतिक सहमति भी दी। बताते हैं कि तब राजस्थानी भाषा को मान्यता देने के लिए बिल भी बनाया, लेकिन आज तक संसद में पेश नहीं हो पाया। 2009 में बीकानेर से बीजेपी के अर्जुनराम मेघवाल सांसद बने, तो लोकसभा में शपथ राजस्थानी भाषा में लेनी चाही, लेकिन उन्हें ऐसा करने से रोका गया। फिर उनके द्वारा यह मुद्दा उठाया भी गया, लेकिन सरकार ने ठोस प्रयास नहीं किए।
राजस्थानी भाषा से ही है राजस्थान की पहचान
मीरा ने कृष्ण की भक्ति में जिस भाषा में की और जिस भाषा में भजन किए, उस भाषा की वजह से मीरा का यश व सम्मान बढ़ा, लेकिन वो भाषा आज सम्मान की बाट जोह रही है। महाराणा प्रताप का नाम व उनके शौर्य की गाथा भी राजस्थानी भाषा में ही है, वो भाषा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष से अब पूरे राजस्थान में हर वर्ग को जुड़ना होगा, तभी जिम्मेदार नेता कुछ करेंगे और सरकार कोई ठोस निर्णय लेगी।