Bayan Mataji History https://jaivardhannews.com/bayan-mata-history-temple-in-chittorgarh/

Bayan Mata History : शारदीय नवरात्रि में माँ के नौ रूपों की आराधना का विशेष महत्व है। आज, हम राजस्थान के प्रसिद्ध बाण माता मंदिर का इतिहास जानेंगे। यहां एक ही शिला पर माता के नौ स्वरूप विराजमान हैं। मेवाड़ के पूर्व राजघराने की कुलदेवी होने के नाते, यह मंदिर देश-विदेश से आने वाले भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विराजमान माता की पूजा का महत्व भगवान एकलिंग नाथ के समान ही है। ऐतिहासिक मान्यता है कि वैशाख शुक्ल अष्टमी को चित्तौड़गढ़ दुर्ग में देवियों की स्थापना हुई थी, इसीलिए इस दिन को चित्तौड़गढ़ की स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है जिसे चित्तौड़ी आठम के नाम से जाना जाता है। बाण माता की पहली मूर्ति 7वीं सदी में बप्पा रावल द्वारा स्थापित की गई थी, लेकिन दुर्भाग्यवश आक्रमणकारियों द्वारा इस मूर्ति को क्षतिग्रस्त कर दिया गया। बाद में 18वीं सदी के अंत में महाराणा सज्जन सिंह ने मूल मूर्ति के आगे एक नई मूर्ति की स्थापना करवाई। आज भी मंदिर में दोनों मूर्तियां विराजमान हैं, जबकि मूल मूर्ति को श्रृंगार से ढक दिया जाता है। चित्तौड़गढ़ के पूर्व राजपरिवार के सदस्य आज भी विशेष अवसरों पर अपनी कुलदेवी बाण माता का आशीर्वाद लेने के लिए इस मंदिर में आते हैं।

Bayan Mata Mandir History : बप्पा रावल और बाण माता की प्रतिमा: एक रोचक कथा

Bayan mataji history chittor https://jaivardhannews.com/bayan-mata-history-temple-in-chittorgarh/

Bayan Mata Mandir History : पुजारी मुकेश पालीवाल के अनुसार, चित्तौड़गढ़ के प्रसिद्ध देवी मंदिर में विराजमान बाण माता की प्रतिमा को गुजरात से बप्पा रावल द्वारा लाया गया था। बप्पा रावल का जन्म और पालन-पोषण गुजरात में ही हुआ था। वहां से विस्थापित होकर वे एकलिंग नाथ जी की तलहटी पहुंचे। 7वीं शताब्दी में रुहिल वंश के राजा रहे बप्पा रावल को पुरोहितों द्वारा लालन-पालन करने के कारण रावल की उपाधि दी गई थी। 13वीं सदी में यह उपाधि महाराणा में परिवर्तित हो गई।

चित्तौड़गढ़ पर विजय प्राप्त करने के बाद बप्पा रावल ने इसे मेवाड़ की राजधानी बनाया। जीत के उपलक्ष्य में वे सूरत गए। सूरत के पास देवबंदर द्वीप पर इस्फगुल राजा का शासन था। बप्पा रावल ने इस्फगुल राजा की पुत्री से विवाह किया और उसे चित्तौड़गढ़ लेकर आए। मान्यता है कि बप्पा रावल देवबंदर से ही बाण माता की प्रतिमा को लेकर चित्तौड़गढ़ आए थे। इस प्रकार, बाण माता की प्रतिमा न केवल एक देवी के रूप में पूजनीय है, बल्कि चित्तौड़गढ़ के इतिहास और बप्पा रावल के जीवन से भी जुड़ी हुई है।

Ban Mata Mandir Chittorgarh : हंसवाहिनी है प्रतिमा

Bayan MAtaji Chittorgarh https://jaivardhannews.com/bayan-mata-history-temple-in-chittorgarh/

Ban Mata Mandir Chittorgarh : पुजारी ने बताया कि बाण माता की प्रतिमा का स्वरूप अत्यंत आकर्षक और विशिष्ट है। मां के चार हाथ हैं, जिनमें से दो ऊपर उठे हुए हैं और दो नीचे की ओर हैं। दाहिने हाथों में अंकुश और बाण तथा बाएं हाथों में पाश और धनुष धारण किए हुए हैं। यह वर्णन दुर्गा सप्तशती के आठवें अध्याय के प्रथम श्लोक से मेल खाता है, जो स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि यह एक हंसवाहिनी प्रतिमा है। हंसवाहिनी को ब्रह्मा से उत्पन्न शक्ति माना जाता है। मां का यह स्वरूप अत्यंत प्राचीन है और शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है। मां के मस्तक पर मुकुट, कानों में कुंडल, गले में हार और हाथों-पांवों में आभूषण उनकी दिव्यता को दर्शाते हैं। मेवाड़ क्षेत्र में इन्हें बाण माता या बयाण माता के नाम से जाना जाता है, जबकि गुजरात में इन्हें ब्रह्माणी के नाम से पूजा जाता है।

Where is Temple Bayan Mata : बाण माता की मूर्ति का इतिहास

Bayan Mataji 07 https://jaivardhannews.com/bayan-mata-history-temple-in-chittorgarh/

Where is Temple Bayan Mata : 7वीं शताब्दी में बप्पा रावल द्वारा मेवाड़ पर विजय प्राप्त करने के पश्चात, बाण माता की मूर्ति की स्थापना चित्तौड़गढ़ दुर्ग में की गई थी। 13वीं शताब्दी में महाराणा हम्मीर सिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और मंदिर को और अधिक भव्य बनाया।महाराणा अमर सिंह द्वारा मुगलों से की गई संधि के कारण, चित्तौड़गढ़ दुर्ग लगभग 200 वर्षों तक वीरान रहा। इस दौरान मंदिर और मूर्तियां भी उपेक्षित रहीं। 15वीं शताब्दी में हुए आक्रमणों में मूल मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई। 18वीं शताब्दी के अंत में, महाराणा सज्जन सिंह ने दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया और क्षतिग्रस्त मूल मूर्ति के समान ही एक नई संगमरमर की मूर्ति बनवाई। वर्तमान में, मूल मूर्ति को श्रृंगार से ढक दिया जाता है और नई मूर्ति को ही दर्शन के लिए रखा जाता है। इस प्रकार, बाण माता की मूर्ति का इतिहास चित्तौड़गढ़ के इतिहास से गहराई से जुड़ा हुआ है और यह मेवाड़ के लोगों की आस्था का केंद्र है।

Baan mata Photo : मंदिर की वास्तुकला और प्रतिमाओं का विवरण

Baan mata Photo : बाण माता मंदिर की दोनों प्रतिमाएं शुद्ध श्वेत संगमरमर से निर्मित हैं और आकार व मुद्रा में लगभग एक समान हैं। प्रतिमाओं के मुखारविंद अत्यंत मनमोहक हैं, ऐसी सुंदरता वाली प्रतिमाएं बहुत कम ही देखने को मिलती हैं। मंदिर का निर्माण उत्तर भारतीय नागर शैली में किया गया है। मंदिर के शिखर पर काले पत्थर पर 12 नृत्य करती हुई अप्सराओं की प्रतिमाएं थीं, जिनमें से अब केवल चार ही शेष रह गई हैं। ये नृत्यांगनाएं विभिन्न वाद्य यंत्र बजा रही हैं और अलग-अलग मुद्राओं में हैं। मंदिर में दो स्तंभ हैं, जिनमें से एक स्तंभ पर घंटियां बनी हुई हैं जबकि दूसरा स्तंभ सादा है। यह संभवतः इस बात का संकेत है कि मंदिर के जीर्णोद्धार के दौरान आसपास से जो भी स्तंभ मिला होगा, उसे मंदिर में जोड़ दिया गया होगा। मंदिर की यह वास्तुकला और प्रतिमाएं न केवल धार्मिक महत्व को दर्शाती हैं बल्कि उस काल की कला और शिल्पकला का भी एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

बाण माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं ये समाज

ब्राम्हण समाज : पुरोहित (पालीवाल), नागर, मेनारिया, पानेरी, मारवाड़ के राजपुरोहित, रावल।
क्षत्रिय समाज : महाराणा साहब मेवाड़, मेवाड़ के भाई, बेटे यानी चुण्डावत, शक्तावत, राणावत, सांरगदेवोत, सिसोदिया, गुहिल, गहलोत, मांगलिया, बडगुजर, मराठा, राणे, भौंसले, सांवत।
वैश्य समाज : ओसवाल, सिसोदिया, पीपाड़ा, हीरण, कोठारी, विनायका, गुगल्या, डांगी, चतर, मुनोत।
अन्य गुहिल वंश : माली, गांची, प्रजापत, मालवीय लोहार, गोराना, सिखी, जाणना, चौधरी, जाट, देवासी, सुथार, छीपा, दर्जी, मेवाड़ा, कलाल, नाई, सेन।