Mahavir Bhagwan : भगवान महावीर का जन्म 599 वर्ष ईसा पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बिहार प्रांत कुंडलपुर में हुआ था। इनके पिता महाराजा सिद्धार्थ और माता महारानी कृष्णा त्रिशला थी। इनके बाल अवस्था का नाम वर्धमान था। इन्हें वीर, अतिवीर, सन्मतिवीर, के नाम से भी जाना जाता है। भगवान महावीर के जन्म के समय समाज में अराजकता फैली हुई थी। जातिभेद, दासी प्रथा, नारी शोषण, अंधविश्वास, पशुबलि, कर्मकांड में समाज जकड़ा हुआ था। 30 वर्ष की आयु में इन्होंने राजपाट को त्याग दिया और जंगल में जाकर 12 वर्षों तक घनघोर तपस्या में लीन रहकर ज्ञान प्राप्त किया।
12 वर्ष तपस्या करके कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात भगवान महावीर ने 30 वर्षों तक संसार में रहकर चार तीर्थों- साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका की स्थापना की। ये सभी तीर्थ लौकिक तीर्थ न होकर एक सिद्धांत है, जिसके द्वारा इन्होंने लोगों को सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचोर्य (अस्तेय), ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाकर अपनी आत्मा को ही तीर्थ बनाने की बात कहकर समाज को अंधविश्वास व कर्मकांड से मुक्ति दिलाई और अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत भी दिए।
जैन धर्म में दीपावली मनाने की परंपरा कब शुरू हुई
72 वर्ष की आयु में भगवान महावीर स्वामी कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन मोक्ष को प्राप्त हुए। तभी से जैन धर्म में दीपावली मनाने की प्रथा हुई और तीर्थंकर कहलाए। भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। कुछ लोग अज्ञानतावश जैन धर्म का प्रारंभ भगवान महावीर से मानते हैं, जो कि सत्य नहीं है। जैन धर्म का प्रारंभ भगवान आदिनाथ से हुआ था, जिन्हें ‘ऋषभदेव’ के नाम से भी जाना जाता है। ये जैन धर्म के पहले तीर्थंकर है। तीर्थंकर का अर्थ होता है, जो सभी प्राणियों को प्रकाश और मुक्ति का मार्ग दिखाएं और इस भवसागर से उन्हें पार लगाए। 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर सभी भक्तों को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं और इस जीवन रूपी भवसागर से पार लगाते हैं।
अहिंसा सबसे उच्चतम गुण
जैन धर्म के अनुसार जलचर, थलचर, नभचर प्राणियों के साथ सभी प्राकृतिक चीजों जैसे कि पेड़-पौधों, वनस्पति यहां तक कि नदी, पहाड़, पत्थरों में भी जीवन होने की मान्यता है। इसके अतिरिक्त भगवान महावीर ने मानव जाति को अहिंसा के साथ जियो और जीने दो का भी सिद्धांत दिया है। उन्होंने अहिंसा को ही सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया है। उन्होंने अहिंसा की बहुत सूक्ष्म व्याख्या की है। उनके अनुसार अहिंसा का अर्थ है हिंसा का परित्याग करना। हिंसा दो प्रकार की होती है द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। हिंसा करने के मन, वचन और कर्म तीन साधन होते हैं l किसी को अस्त्र-शस्त्र तलवार से मार देना द्रव्य हिंसा कहलाती है और मन वचन से दूसरे के प्रति झूठ, चोरी, क्रोध, कपट आदि दुर्गुणों का मन में पैदा होना भाव हिंसा कहलाती है।
भगवान महावीर की अहिंसा कहती है। यदि आपके राष्ट्र, धर्म और बहन-बेटियों या अपनों पर कोई संकट आए तो उसका मुकाबला वीरता से करो ऐसे में अहिंसा का व्रत खंडित नहीं होता। दुष्टों से भयभीत होकर भागना या उनका मुकाबला ना करना कायरता की श्रेणी में आता है। अहिंसा वीरों का आभुषण हैं, ना कि कायरों का।
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