जिस तरह कोयल की एक कुक हर किसी के तन- मन को शांति, सुकून व प्रकृति के पास होने का अहसास कराती है, ठीक उसी तरह संगीत के शौकीनों के लिए रावण हत्था वाद्य यंत्र की आवाज भी कुछ ऐसी ही मिठास गोल देती है। रावण हत्था वाद्य यंत्र के इतिहास को खंगालने का प्रयास किया, तो कई किवदंतियां और पौराणिक कहानियां भी सामने आई, जो रोचक भी है और पुराने इतिहास से भी रूबरू कराती है। साथ ही राजस्थानी लोक संस्कृति से भी यह वाद्य यंत्र जोड़ता है। क्योंकि आज भी इसी रावण हत्थे के वाद्य यंत्र से राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में पाबूजी व रामदेवजी के जीवन संघर्ष की गाथा सुनाई जाती है और लोग भी बड़े चाव से उसे देखते हैं और सुनते हैं।
रावण हत्था की आवाज बड़ी ही मनमोहक होती है । एक वाद्य यंत्र है, जिसकी आवाज पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, जोधपुर, पाली क्षेत्र में काफी देखने व सुनने में मिलता है। रामदेव जी व पाबूजी की फ़ड़ वादन मे इस वाध्य यंत्र का उपयोग किया जाता हैं। यह भोपों का प्रमुख प्रिय वाद्य यंत्र है, जिसकी बनावट सरल हैं व इसका सुरीलापन भी काफी अद्भुत है। रावणहत्थे की फड़ पर पाबूजी के जीवन प्रसंगो से युक्त चित्रकारी भी बनी होती है। भोपे पाबूजी की जीवनकथा काे इन चित्रों के माध्यम से ही कहते हैं व गीत भी गाते हैं। मध्यकालीन इतिहास में रावणहत्था राजाओं का सर्वाधिक लोकप्रिय वाद्ययंत्र था। राजस्थान की संगीत परंपरा में रावणहत्था काफी लोकप्रिय है। भारत से रावणहत्था पश्चिम की ओर मध्य-पूर्व और यूरोप तक पहुंचा, जहां 9वीं शताब्दी में, इसे रावणस्त्रोंग कहा जाने लगा।
कहते हैं रावण ने किया था आविष्कार
किवदंती है कि रावण हत्था की उत्पत्ति श्रीलंका की हेला सभ्यता से हुई है। जो यह एक प्राचीन तानेवाला संगीत वाद्ययंत्र है। इसके तहत कहते हैं कि श्री लंका के राजा रावण के द्वारा इस वाद्य यंत्र का आविष्कार किया गया था। यह भी कहते हैं कि हनुमानजी श्रीलंका से रावण हत्थे को उठा लाए थे और तभी इसका प्रचलन भारत के राजस्थान के पश्चिमी इलाके में होने लगा। हिन्दू परम्परा की मान्यता के मुताबिक ईसा से 3000 वर्ष पहले लंका में रावण ने आविष्कार किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार रावण हिंदू भगवान शिव के प्रतापी भक्त थे और उन्होंने रावणहत्था का उपयोग कर उनकी सेवा की। हिंदू महाकाव्य रामायण में राम और रावण के बीच युद्ध के बाद हनुमान एक रावणहत्था उठाकर उत्तर भारत लौट आये।
रावण हत्था का उपयोग
रावण हत्था का उपयोग भोपों व भील समाज के लोंगो द्वारा सर्वाधिक किया जाता है। गोगाजी व पाबूजी के भजनों में रावणहत्थे का प्रयोग अधिक किया जाता है। भोपे विशेषकर थोरी जाति के होते है। इन्होंने भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक धरोहर को आज भी संभालकर रखा है व इसे विकसित भी किया गया है । रावणहत्थे की आवाज इतनी मधुर है, कि इससे भजनों के साथ-साथ राजस्थानी व फिल्मी गाने भी बजाए जाते है, यही नही बल्कि मध्यकालीन इतिहास में राजाओं व राजकुमारों को संगीत सीखाने में भी इसका प्रयोग होता है।
रावणहत्थे की बनावट
रावणहत्था एक सांरगीनुमा वाद्य यंत्र होता है। इसमे 9 तार होते हैं व इसकी गज मे 4-6 तार होते है। ये तार बालों से बने होते हैं, जिन पर गज चलाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। इसमें एक नारियल की कटोरी होती है, जिस पर खाल मढ़ी हुई होती, जो बांस से जुड़ी रहती है। इसमें जो बांस है, उस पर जगह-जगह खुंटियां लगी है, जो तारों से बंधी है। इनमें जो मुख्य तार होते हैं, जिनमें एक लोहे की स्टील का तार होता है तथा दूसरा तार घोड़े की पूंछ के बाल का होता है। साथ ही करीब तेरह तरह के सहायक तार भी होते हैं, जो बांस के ऊपर लगे होते हैं और उसी से सुरीली आवाज निकलती है। इस वाद्ययंत्र को वायलिन की तरह बजाया जाता है। इसके एक सिरे पर घुंघरू बाँधे जाते हैं । बजाते वक्त हाथ के ठूमकों के साथ घुंघरू भी बजते है, जिससे संगीत की आवाज और भी मधुर बन पड़ती है।
रावण हत्था की खासियत
- संगीत के आधुनिक वाद्य यंत्रों में रावण हत्था को वायलिन का पूर्वज भी माना है।
- धनुष की तरह मींड़ व डेढ़-दो इंच व्यास वाले बाँस से रावण हत्था बनता है।
- अधकटी सूखी लौकी या नारियल की खोल पर पशुचर्म या सांप के केंचुली को मढ़कर तार खींचकर बांधते हैं।
- तारों के माध्यम से मधुर ध्वनि निकलती है, जो लोगों को काफी लुभाती है।
- पाबूजी व रामदेवजी के भजनों की धुन रावण हत्थे से सुनाई जाती थी।
- राजस्थान में फड़ का वाचन भी इसी के जरिए ग्रामीण क्षेत्र में होता था।
- अब तो रावण हत्थे से राजस्थानी, फिल्मी गानों की धुन भी निकालते हैं।