Holi Shreenathji Ki : दिवाली पर अमीर खुश होता है और होली पर गरीब। अमीर की दिवाली जगमगाती है और गरीब की होली हंसाती है। अमीर दिवाली मनाता है, दिखाने के लिए और गरीब होली खेलता है जिन्दगी के अभाव में खुश रहने के लिए। दिवाली पर गरीब के पास दिखाने के लिए कुछ नहीं होता और अमीर को होली पर दिखाने का मौका नहीं मिलता। दमकते दोनों ही हैं। दिवाली पर अमीर और होली पर गरीब। दिवाली की आहट नवदुर्गा से और होली की आहट होली के डांडे से। होली की आहट योजना आयोग की तरह सभी को सक्रिय कर देती है। होली कैसे खेलनी है, किसे रंगना, किसे छोड़ना/ छेड़ना और किसे रगड़ना है। किसे रंगहीन बनाना है। होली पर मुर्दानगी का कोई काम नहीं। सब खुश नज़र आते हैं।
चौपाल पर मीटिंगों का दौर शुरू हुआ। खेलनीति बनने लगी। खेलों की दुर्दशा का कारण भी यही नीति रही है, लेकिन ‘तो कू और नई मौकू ठौर नई।’, पिछले दिनों वर्मा, कर्मा, और अन्य लोग नाथद्वारा में श्रीनाथजी मंदिर गए, वहां के दहीबड़े खाकर आए थे। तय हुआ होली पर दही बड़े हो जाएं। मिठाई की बात पर गुलाब जामुन पर सहमति नहीं बन पाई। फौज के लिए गुलाब जामुन? बाजार की गुजिया ठीक रहेगी। रोज गालियों की प्रक्टिस होने लगी। गालियों का पैटर्न तैयार हुआ, जिसमें मां-बहन को छोड़ बाकी गालियों का समावेश खुशी-खुशी किया गया। साइकिल वाले से लेकर गधे वाले तक की। गुजिया और गाली के बिना होली कैसी? होली में नाली का अनूठा रंग होता है। इसमें स्वैच्छा से कुछ नहीं होता, जो कुछ होता है जबरदस्ती। जो होली में गधे पर बैठता पार्टी उसके यहां होती। इस बार बारी-बारी से सभी को बिठाया गया। किसी ने गुजिया तो किसी ने दहीबड़े का हंडा चढ़ा दिया। बहरहाल, होली पर पीने वाले खुश, पिलाने वाले खुश, नंगा खुश, नंगा करने वाले खुश, कपड़े फाड़ने वाले खुश, कपड़े फटवाने वाले खुश, गिरने वाले खुश, गिराने वाले खुश, लौटने वाले खुश, लुढ़काने वाले खुश, चखना-चखने वाले खुश, चखना बेचने वाले खुश, गालियां देने वाले खुश, गालियां खाने वाले खुश, गधे पर बैठने वाला खुश, बिठाने वाले खुश। होली का डांडा ना हुआ, खुशी का पैगाम हो गया। बाबू का डीए, वेटर की बख्शीश, बणिये का ब्याज, नेता का मंत्री पद और गरीब के लिए गुड़ का डिल्ला हो गई होली। युद्ध नहीं फिर भी युद्ध जैसी तैयारी। हर आदमी हुरिआने की तैयारी में। मन से, तन से, गाली से, मिठाई से, प्रेम से, और तो और गुस्से में भी, होली का रंग चढ़ा था।
घेरदार घाघरों घुमाय के चली, गली की लली।
सौ कली को घाघरो नाय, पेटीकोट पर चुन्नी डाल के चली लली।
मुहल्ला दर मुहल्ला गाली पे गाली चली।
गधे पे शेख चिल्ली और पीछे बेवड़ों की बारात चली।
Holi Shreenathji Ki : माटी महल के निवासी भी होली खेल कर छक लिए। जिस गंदे पानी में नहाते थे, उसी पानी में नहाकर खुश हो लिए। खुशी इसलिए ज्यादा थी जो नाक बंद करके निकलते थे, वे भी उसी पानी में नहा लिए। आज किसी में हीनता का भाव नहीं था, सबके ग्रहों में गंदा पानी उच्च भाव में बैठा था। दोपहर होते-होते सब थक चुके थे। छक चुके थे। मन-मन भरके जी चुके थे। गालियां सब चुक गईं। गुजिया और दहीबड़े का इंतजार था। गुजिया तो निपट गई, बच गए दही बड़े। अच्छा बनाने के चक्कर में मिठास कम, खटास ज्यादा बढ़ गई। अब क्या किया जाए? नशे में आदमी उदार हो जाता है। उसे सब गरीब और खुद अमीर दिखाई देने लगता है। एक सुझाव टपक पड़ा। माटी महल के निवासियों को दही बड़े खिला दिए जाएं।
कौन कहता है, होली गरीबों की होती है? होली अगर गरीबों की होती तो, होली के बाद जरूर पेट भर जाता? खाली पेट होली खेली तो जा सकती है, लेकिन खाली पेट सोया नहीं जा सकता?
भूख में कंडे पापड़ हो जाते हैं। फिर दही बड़े तो दही बड़े थे। नखरे उनके होते हैं, जिनका पेट भरा होता है। दही बड़े की खटास, भूख में मिठास सी लगती है। यह खटास पेट भरने और खराब होने के लिए माकूल थी। इस खटास से दही बड़े का रंग पेट में पहुंचते ही लाल हो गया। जो भूख से बे हाल थे? अब पेचिस से परेशान हैं। माटी महल निवासियों के मुंह से निकलने लगी- होली आई रे बना, तेरी…।
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March-2024सुनील जैन ‘राही’
वरिष्ठ साहित्यकार, नई दिल्ली
मो. 9810960285